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________________ २८२ अमितगतिविरचिता यथादिमेन चित्तेन मध्यमं जन्यते सदा । मध्यमेन यथा चान्त्यमन्तिमेनाग्रिमं तथा ॥४१ मध्यमं जायते चित्तं यथा न प्रथमं विना । तथा न प्रथमं चित्तं जायते पूर्वकं विना ॥४२ शरीरे दृश्यमाने ऽपि न चैतन्यं विलोक्यते । शरीरं न च चैतन्यं यतो भेदस्तयोस्ततः ॥४३ चक्षुषा वीक्षते गात्रं चैतन्यं संविदा' यतः । भिन्नज्ञानोपलम्भेन ततो भेदस्तयोः स्फुटम् ॥४४ प्रत्यक्षमीक्षमाणेषु सर्वभूतेषु वस्तुषु । अभावः परलोकस्य कथं मूढैविधीयते ॥४५ ४४) १. ज्ञानेन । जिस प्रकार आदिम चित्तसे मध्यम चित्त तथा मध्यम चित्तसे अन्तिम चित्त सदा उत्पन्न होता है उसी प्रकार अन्तिम चित्तसे आदिम चित्त भी उत्पन्न होना चाहिए। जिस प्रकार मध्यम चित्त प्रथम चित्तके बिना उत्पन्न नहीं हो सकता है उसी प्रकार प्रथम चित्त भी पूर्व चित्तके बिना उत्पन्न नहीं हो सकता है । विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि पर्यायकी दृष्टिसे प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण पूर्व पर्यायको छोड़कर नवीन पर्यायको ग्रहण किया करती है । इस प्रकार पूर्व क्षणवर्ती पर्याय कारण व उत्तर क्षणवर्ती पर्याय कार्य होती है। तदनुसार गर्भसे मरण पर्यन्त अनुभव में आनेवाला चित्त- जीव द्रव्य-भी जन्म लेनेके पश्चात् जिस प्रकार उत्तरोत्तर नवीन नवीन पर्यायको प्राप्त होता है तथा इस उत्पत्तिक्रम में पूर्व चित्त कारण और उत्तर चित्त कार्य होता है उसी प्रकार जन्म समयका आदिम चित्त भी जब कार्य है तब उसके पूर्व भी उसका जनक कोई चित्त अवश्य होना चाहिये, अन्यथा उसकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है । इस युक्तिसे गर्भके पूर्व भी जीवका अस्तित्व सिद्ध होता है । तथा इसी प्रकार जब कि पूर्व - पूर्व चित्तक्षण उत्तर- उत्तर चित्तक्षणको उत्पन्न करते हैं तो मरणसमयवर्ती अन्तिम चित्तक्षण भी आगे के चित्तक्षणका उत्पादक होगा ही । इस प्रकारसे मरणके पश्चात् भी जीवका अस्तित्व सिद्ध होता है । अतएव गर्भसे पूर्व और मरण के पश्चात् जीवका अस्तित्व नहीं है, यह चार्वाकों का कहना युक्तिसंगत नहीं है ||४१-४२ ॥ इसके अतिरिक्त शरीरके दिखनेपर भी चूँकि चेतनता दिखती नहीं है तथा वह शरीर चेतनता नहीं है-उससे भिन्न है, इसलिए भी उन दोनोंमें भेद है। चूँकि शरीर आँखके द्वारा देखा जाता है और वह चैतन्य स्वसंवेदन ज्ञानके द्वारा देखा जाता है, इसलिए भिन्न-भिन्न ज्ञानके विषय होनेसे भी उन दोनोंमें स्पष्टतया भेद है || ४३-४४ || सब प्राणियों में वक्ताओंके - पूर्व जन्मके वृत्तान्तको कहनेवाले कुछ प्राणियोंके - प्रत्यक्षमें देखे जानेपर मूर्ख जन परलोकका अभाव कैसे कर सकते हैं ? अर्थात् वैसी अवस्थामें उसका अभाव सिद्ध करना शक्य नहीं है ||४५ || ४१) इ चान्त्यं चान्त्यमेनां । ४३ ) अ च न चैतन्यम् । ४४ ) अक वीक्ष्यते । ४५ ) अ क ड वक्तृषु for वस्तुषु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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