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________________ २७८ अमितगतिविरचिता अध्वर्युभिः कृता यागे हिंसा संसारकारिणी। पापधिकैरिवारण्ये प्राणिपीडाकरी यतः॥१९ हन्यमाना हठाज्जीवा याज्ञिकः खट्टिकरिव । स्वर्ग यान्तीति भो चित्रं संक्लेशव्याकुलीकृताः॥२० या धर्मनियमध्यानसंगतैः साध्यते ऽङ्गिभिः । कथं स्वर्गगतिः साध्या हन्यमानेरसौ हठात् ॥२१ वैदिकानां वचो ग्राहयं न हिंसासाधि साधुभिः । खट्टिकानां कुतो वाक्यं धार्मिकः क्रियते हृदि ॥२२ न जातिमात्रतो धर्मो लभ्यते देहधारिभिः । सत्यशौचतपःशीलध्यानस्वाध्यायजितैः ॥२३ २०) १. खाटकैः। २२) १. ध्रियते । याग कर्ताओंके द्वारा यागमें जो प्राणिहिंसा की जाती है वह इस प्रकारसे संसारपरिभ्रमणकी कारण है जिस प्रकार कि शिकारियों के द्वारा वनके बीच में की जानेवाली प्राणिपीड़ाजनक जीवहिंसा संसारपरिभ्रमणकी कारण है ॥१९॥ जिस प्रकार कसाइयोंके द्वारा मारे जानेवाले गो-महिषादि प्राणी उस समय उत्पन्न होनेवाले संक्लेशसे अतिशय व्याकुल किये जाते हैं उसी प्रकार यज्ञमें यागकर्ताओंके द्वारा हठपूर्वक मारे जानेवाले बकरा व भैंसा आदि प्राणी भी उस समय उत्पन्न होनेवाले भयानक संक्लेशसे अतिशय व्याकुल किये जाते हैं। फिर भी यज्ञमें मारे गये वे प्राणी स्वर्गको जाते हैं, इन याज्ञिकोंके कथनपर मुझे आश्चर्य होता है। कारण कि उक्त दोनों ही अवस्थाओं में समान संक्लेशके होते हुए भी यज्ञमें मारे गये प्राणी स्वर्गको जाते हैं और कसाइयोंके द्वारा मारे गये प्राणी स्वर्गको नहीं जाते हैं, यह कथन युक्तिसंगत नहीं है ॥२०॥ प्राणी जिस देवगतिको धर्मके नियमों-व्रतविधानादि-और ध्यानमें निरत होकर प्राप्त किया करते हैं उस देवगतिको दुराग्रहवश यज्ञमें मारे गये प्राणी कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? उसकी प्राप्ति उनके लिए सर्वथा असम्भव है ।।२१।। ___ इसलिए सत्पुरुषोंको इन वेदभक्त याज्ञिकोंके हिंसाके कारणभूत उक्त कथनको ग्रहण नहीं करना चाहिए। कारण कि धर्मात्मा जन कसाइयोंके-हिंसक जनोंके-कथनको कहीं किसी प्रकारसे भी हृदयंगम नहीं किया करते हैं ॥२२॥ प्राणी सत्य, शौच, तप, शील, ध्यान और स्वाध्यायसे रहित होकर भी जाति मात्रसे-केवल उच्च समझी जानेवाली ब्राह्मण आदि जातिमें जन्म लेनेसे ही-धर्मको नहीं प्राप्त कर सकते हैं ।।२३।। १९) अ ड अथ पुम्भिः for अध्वर्युभिः; अ योगे, ब गेहे for यागे । २०) अ खङ्गिकरिव; अ ब ड इ मे चित्रं । २१) अ ध्यानं संगीतैः, ध्यानससंगध्यायते ऽङ्गिभिः । २२) इ हिंसासाध्वि । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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