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________________ अमितगतिविरचिता खण्डैरखण्डैजनयाचनीयां चक्रेश्वराणां यदनन्यगम्यः । आवश्यकैः षड्भिरिवे प्रदत्ते लक्ष्मी मुनीनामनघं चरित्रम् ॥१९ यज्जाह्नवीसिन्धुखंचारिशैलैविभज्यमानं भवति स्म षोढा। त्रिभिः प्रशस्तेतरकर्मजालं योगैरिवानेकविशेषयुक्तैः ॥२० तंत्रास्ति शैलो विजयार्धनामा यथार्थनामा महनीयधामा। पूर्वापराम्भोधितटावगाही गात्रं स्थितः शेष इव प्रसार्य ॥२१ १९) १. क्षेत्रम् । २. क सामायिकादिभिः । २०) १. विजयाधैः । २. क त्रिभिः प्रकारैः षोढा । ३. क शुभाशुभकर्मसमूहम् । २१) १. क्षेत्रे । २. धरणेन्द्रः ; क नागः । - वह भरत क्षेत्र जिस प्रकार साधारण जनके लिए दुर्गम ऐसे पूर्ण छह खण्डोंके द्वारा जनोंसे प्रार्थनीय चक्रवर्तियोंकी विभूतिको देता है उसी प्रकारसे अन्य जनोंके लिए दुर्लभ ऐसे अखण्डित छह आवश्यकों (समता-वंदना आदि ) के द्वारा मुनियोंके लिए निर्मल सकल चारित्रको भी देता है । विशेषार्थ-गोल जम्बूद्वीपके भीतर दक्षिणकी ओर अन्तमें भरतक्षेत्र स्थित है। उसके उत्तर में हिमवान् पर्वत और शेष तीन दिशाओंमें लवण समुद्र है। इससे उसका आकार ठीक धनुषके समान हो गया है। उसके बीचोंबीच विजयाध पर्वत और पूर्व-पश्चिमकी ओर हिमवान् पर्वतसे निकली हुई गंगा व सिन्धु नामकी दो महानदियाँ हैं। इस प्रकारसे वह भरतक्षेत्र छह खण्डोंमें विभक्त हो गया है। इन छहों खण्डोंके ऊपर विजय प्राप्त कर लेनेपर चक्रवर्तियोंके लिए साम्राज्यलक्ष्मी प्राप्त होती है। तथा कर्मभूमि होनेके कारण यहाँपर भव्य जीव समता-वंदना आदिरूप छह आवश्यकोंका अखण्डित स्वरूपसे परिपालन करके निर्मल सकल चारित्र (महाव्रत) को धारण करते हैं और मोक्षको प्राप्त करते हैं। इस प्रकारसे वह भरतक्षेत्र इस लोकसम्बन्धी तथा परलोकसम्बन्धी भी सर्वोत्कृष्ट सुखको प्रदान करनेवाला है ॥१९॥ __ वह भरतक्षेत्र गंगा-सिन्धु नदियों तथा विद्याधरोंके पर्वत (विजयार्ध ) से विभागको प्राप्त होता हुआ छह खण्डोंमें इस प्रकारसे विभक्त हो गया है जिस प्रकारसे कि शुभाशुभरूप अनेक भेदोंसे युक्त तीन योगों ( मन-वचन-काय ) के द्वारा पुण्य व पापरूप कमेसमूह विभक्त हो जाता है ॥२०॥ उस भरतक्षेत्रमें प्रशंसनीय स्थानसे संयुक्त व सार्थक नामवाला विजयार्ध पर्वत पूर्व एवं पश्चिम समुद्रके तटको प्राप्त होकर ऐसे स्थित है जैसे मानो अपने लम्बे शरीरको फैलाकर शेषनाग ही स्थित हो। चूंकि इस पर्वतके पास चक्रवर्तीकी विजयका आधा भाग समाप्त हो जाता है अतएव उसका विजयाधे यह नाम सार्थक है ॥२१॥ १९) इ खण्डैः सुखण्डे । २०) इ संजाह्नवी....शैलविभज्य । २१) इ गात्रस्थितं शेष इव प्रयास । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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