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________________ धर्मपरीक्षा - १६ ताभ्यामुक्तं स ते पुत्र को ऽपि दत्ते न डिक्करीम् । आवां निराकरिष्यावः कान्ताश्रद्धां तथापि ते ॥ ६६ द्रव्येण भूरिणा ताभ्यां गृहीत्वा निःस्वदेहजाम् । कृत्वा महोत्सवं योग्यं ततो ऽसौ परिणायितः ॥६७ ताभ्यामेष ततो ऽवाचि स्वल्पकालव्यतिक्रमे । वयोरस्ति वत्स स्वं त्वं स्वां पालय वल्लभाम् ॥६८ ततो दधिमुखेनोक्ता स्ववधूरेहि वल्लभे । व्रजाव: क्वापि जीवावः पितृभ्यां पेल्लितौ ' गृहात् ॥६९ ततः पतिव्रतारोप्य सिक्यके दयितं निजम् । बभ्राम धरणीपृष्ठे दर्शयन्ती गृहे गृहे ॥७० पालयन्तीमिमां दृष्ट्वा तादृशं विकलं पतिम् । चक्रिरे महतों भक्ति ददानाः कशिपुं प्रजाः ॥७१ तथा पतिव्रता पूजां लभमाना पुरे पुरे । एकदोज्जयिनीं प्राप्ता भूरिटिण्टाकुलां सती ॥७२ ६६) १. पूरयिष्यावः । ६८) १. गते । २. द्रव्यम् । ६९) १. निकालितो । ७१) १. द्रव्यम् । यह सुनकर माता-पिताने उससे कहा कि हे पुत्र ! तेरे लिए कोई भी अपनी छोकरी नहीं देता है । फिर भी हम दोनों तेरे कामकी श्रद्धाका निराकरण करेंगे - तेरी स्त्रीविषयक इच्छाको पूर्ण करेंगे ॥६६॥ Jain Education International २६७ तत्पश्चात् उन दोनोंने बहुत सा धन देकर एक दरिद्रकी पुत्रीको प्राप्त किया और यथायोग्य महोत्सव करके उसके साथ इसका विवाह कर दिया || ६७॥ फिर कुछ थोड़े-से ही कालके बीतनेपर उन दोनोंने दधिमुखसे कहा कि हे वत्स ! अब हमारे पास द्रव्य नहीं है, अतः तुम अपनी प्रियाका पालन करो ||६८|| इसपर दधिमुखने अपनी पत्नीसे कहा कि हे प्रिये ! हम दोनोंको माता-पिताने घर से निकाल दिया है, इसलिए चलो कहींपर भी जीवन-यापन करेंगे ||६९ || तब दधिमुखकी वह पतिव्रता पत्नी अपने पतिको एक सींकेमें रखकर घर-घर दिखलाती हुई पृथिवीपर फिरने लगी ||७० || इस प्रकार ऐसे विकल - हाथ-पाँव आदि अंगों से रहित सिरमात्र स्वरूप - पतिका पालन करती हुई उस दधिमुखकी स्त्रीको देखकर प्रजाजनोंने अन्न-वस्त्र देते हुए उसकी बड़ी भक्ति की ॥ ७१ ॥ उपर्युक्त रीति से वह सती पतिव्रता प्रत्येक नगरमें जाकर उसी प्रकारसे पूजाको प्राप्त करती हुई एक समय बहुत-से जुआके अड्डोंसे व्याप्त उज्जयिनी नगरी में पहुँची ॥७२॥ ६६) अ क ताभ्यामुक्तः । ६८) ब कालम् । ७२) क ड इ पूजा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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