SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मपरीक्षा-१६ निःसंधिोजिता भूयस्तो मर्धपरंपरा । उष्णाभिरत्रेधाराभिः सिञ्चन्ती धरणीतलम् ॥५२ किमीदृशः पुराणार्थो वाल्मीकीयोऽस्ति भो न वा। निगद्यतां तदा सत्यं यूयं चेत्सत्यवादिनः ॥५३ ते व्याचचक्षिरे साधो सत्यमेवेदमोदृशम्'। प्रत्यक्षमीक्षितं ख्यातं को ऽन्यथा कतु मीशते ॥५४ श्वेतभिक्षुस्ततो ऽवोचन्मर्धानो यदि कतिताः । रावणस्य नवा लग्नास्तदैको न कथं मम ॥५५ युष्मदीयमिदं सत्यं नास्मदीयं वचः पुनः । कारणं नात्र पश्यामि मुक्त्वा मोहविज़म्भणम् ॥५६ हरः शिरांसि लूनानि पुनर्योजयते यदि । स्वलिङ्गं तापसैश्छिन्नं तदानीं किं न योजितम् ॥५७ स्वोपकाराक्षमः शंभुर्नान्येषामुपकारकः । न स्वयं मार्यमाणो हि परं रक्षति वैरितः ॥५८ ५२) १. कबन्धके । २. अशुद्ध । ५४) १. पुराणम् । २. समर्थाः । तत्पश्चात् रावणने गरम-गरम रुधिरकी धारासे पृथिवीतलको सींचनेवाली उन सिरोंकी परम्पराको बिना किसी प्रकारके छिद्रके फिरसे जोड़ दिया ॥५२॥ मनोवेग पूछता है कि हे विप्रो! वाल्मीकिके द्वारा वर्णित पुराणका अभिप्राय क्या इसी प्रकारका है या अन्यथा । यदि आप सत्यभाषी हैं तो उसको सत्यताको कहिए ॥२३॥ इसपर ब्राह्मण बोले कि हे भद्र ! सचमुचमें वह उसी प्रकारका है। जो प्रत्यक्षमें देखा गया है अथवा अतिशय प्रसिद्ध है उसे अन्य प्रकार करनेके लिए कौन समर्थ हैं ? ॥५४॥ ब्राह्मणोंके इस उत्तरको सुनकर भस्मका धारक वह मनोवेग बोला कि हे विद्वान् विप्रो ! जब कि वे रावणके काटे हुए नौ सिर पुनः जुड़ गये थे तो मेरा एक सिर क्यों नहीं जुड़ सकता है ? आपका यह कथन तो सत्य है, परन्तु मेरा वह कहना सत्य नहीं है। इसका कारण मुझे मोह के विकासको छोड़कर और दूसरा कोई नहीं दिखता ॥५५-५६॥ यदि उन काटे हुए सिरोंको शंकर जोड़ देता है तो उसने उस समय तापसोंके द्वारा काटे गये अपने लिंगको क्यों नहीं जोड़ा ? ॥५॥ जब शंकर स्वयं अपना ही भला करने में असमर्थ है तब वह दूसरोंका भला नहीं कर सकता है । कारण कि जो स्वयं शत्रुके द्वारा पीड़ित हो रहा है वह उस शत्रुसे दूसरे की रक्षा नहीं कर सकता है ॥५८॥ ५२) भोजनीभूय तत्र । ५३) ड वा for भो। ५४) अ न तेव्याचक्षिरे साधो । ५५) अ स भौतिकस्ततोवोचत् । ५६) भ युष्मदीयं वचः सत्यम्; अ मुक्ता मोहविजृम्भितम् । ५७) ब तापसच्छिन्नम् । ५८) भब मद्यमानो, क मर्यमाणो। ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy