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________________ २६० अमितगतिविरचिता ततः शाखामृगाः प्रोक्ता यतः शाखामृगध्वजाः। सिद्धानेकमहाविद्या राक्षसा राक्षसध्वजाः॥१९ गौतमेन यथा प्रोक्ताः श्रेणिकाय गणेशिना । श्रद्धातव्यास्तथा भव्यः शशाङकोज्ज्वलदृष्टिभिः ॥२० परकीयं परं'साधो पुराणं दर्शयामि ते। इत्युक्त्वा श्वेतभिक्षुत्वं जग्राहासौ समित्रकः ॥२१ एष द्वारेण षष्ठेन गत्वा पुष्पपुरं ततः । आस्फाल्य सहसा भेरीमारूढः कनकासने ॥२२ आगत्य ब्राह्मणैः पृष्टः किं वेत्सि को गुरुस्तव । कतुं शक्नोषि किं वादं सौष्ठवं दृश्यते परम् ॥२३ तेनोक्तं वेनि नो किंचित् विद्यते न गुरुमम । वादनामापि नो वेमि वादशक्तिः कुतस्तनी ॥२४ अदृष्टपूर्वकं दृष्ट्वा निविष्टो ऽष्टापदासने। प्रताडय महती भेरी महाशब्ददिदृक्षया ॥२५ २०) १. एते सुग्रीवरावणादयः । २. माननीयाः। २१) १. अन्यम् । ध्वजामें बन्दरका चिह्न होनेसे सुग्रीव आदि बन्दर कहे गये हैं तथा राक्षसका चिह्न होनेसे रावण आदि राक्षस कहे गये हैं। दोनोंको ही अनेक महाविद्याएँ सिद्ध थीं ॥१९॥ उनका स्वरूप जिस प्रकार गौतम गणधरने श्रेणिकके लिए कहा था, चन्द्रमाके समान निर्मल दृष्टिवाले भव्य जीवोंको उसका उसी प्रकारसे श्रद्धान करना चाहिए ॥२०॥ हे मित्र ! अब मैं तुम्हें दूसरोंके पुराणके विषयमें और भी कुछ दिखलाता हूँ, यह कहकर मनोवेगने मित्रके साथ कौलिकके आकारको-तान्त्रिक मतानुयायीके वेषकोग्रहण किया ॥२१॥ ___ तत्पश्चात् वह छठे द्वारसे पाटलीपुत्र नगरके भीतर गया और अकस्मात् भेरीको बजाकर सुवर्णसिंहासनके ऊपर बैठ गया ॥२२॥ भेरीके शब्दको सुनते ही ब्राह्मणोंने आकर उससे पूछा कि तुम क्या जानते हो, तुम्हारा गुरु कौन है, और क्या तुम हम लोगोंसे शास्त्रार्थ कर सकते हो या केवल बाह्य अतिशयता ही दिखती है ॥२३॥ ब्राह्मणोंके प्रश्नोंको सुनकर मनोवेग बोला कि मैं कुछ नहीं जानता हूँ, तथा गुरु भी मेरा कोई नहीं है । मैं तो शास्त्रार्थके नामको भी नहीं जानता हूँ, फिर भला शास्त्रार्थकी शक्ति मुझमें कहाँसे हो सकती है ॥२४॥ _ मैंने पूर्व में कभी ऐसे सुवर्णमय आसनको नहीं देखा था, इसीलिए इस अपूर्व आसन को देखकर उसके ऊपर बैठ गया हूँ तथा भेरीके दीर्घ शब्दको देखनेकी इच्छासे इस विशाल भेरीको बजा दिया था ॥२५॥ २१) अ कोलकाकारं for श्वेतभिक्षुत्वम् । २५) ड पदासनम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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