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अमितगतिविरचिता
आराध्यमानो ऽपि खलः कवीन्द्रैर्न वक्रिमाणं विजहाति दुष्टः । परोपतापप्रथनैप्रवीणैः प्रप्लोषते' वह्निरुपास्यमानैः ॥११
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एके मन्ये विहिता दलेर्ने स्रष्ट्रोम्बुदेका शशाङ्कसन्तः । विना निमित्तं परोपकारं कि कुर्वते ऽमी' सततं जनानाम् ॥१२ विदूयमानो ऽपि खलेन साधुः सदोपकारं कुरुते गुणैः स्वैः । निः पीड्यमानो ऽपि तुषाररश्मी राहु न किं प्रीणयते सुधाभिः ॥१३ " तिग्मेतरांशावित्र शीतलत्वं स्वभावतस्तिग्मरुचीव तापम् । साधौ गुणं वीक्ष्य खले च दोषं न तोषरोपौ जनयन्ति सन्तः ॥ १४
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४. क परपोडाविस्तारपटुः ।
११) १. क सेव्यमानो ऽपि । २. न त्यजति । ३. विस्तरणे । ५. भस्मीकरोति; क दह्यते । ६. क सेव्यमानः । १२) १. क अर्धेन । २. अहं मन्ये । ३. कृताः । ४. खानिमृत्तिकातत्त्वेन । ५. विधात्रा । ६. चन्दन । ७. अन्यथा । ८. अम्बुदहरिचन्दनशशाङ्कसन्तः ।
१३) १. पीड्यमानः । २. चन्द्रः ।
१४) १. क चन्द्रे | २. क आदित्ये ।
बड़े-बड़े कविराज उस दोषग्राही दुष्ट पुरुषकी कितनी ही सेवा क्यों न करें; किन्तु वह अपनी कुटिलताको नहीं छोड़ सकता है। कारण कि वह स्वभावसे ही दूसरोंको अधिक से अधिक संताप देने में प्रवीण हुआ करता है । उदाहरणके रूप में देखो कि अग्निकी जितनी अधिक उपासना की जाती हैं- उसे जितने अधिक समीपमें लेते हैं - वह उतने ही अधिक दाहको उत्पन्न किया करती है ॥ ११ ॥
ब्रह्मदेव ने मेघ, चन्दन, चन्द्र और सत्पुरुष इन सबको एक ही मिट्टी के खण्ड से बनाया है; ऐसा मैं मानता हूँ । कारण कि यदि ऐसा न होता तो फिर ये अकारण ही दूसरे जनांका निरन्तर क्यों उपकार करते ? नहीं करना चाहिए था । तात्पर्य यह कि सत्पुरुष मेघ, चन्दन और चन्द्रमाके समान निरपेक्ष होकर स्वभाव से ही दूसरोंका भला किया करते हैं ||१२||
दुर्जनसे पीड़ित होता हुआ भी सज्जन अपने गुणोंके द्वारा उसका निरन्तर उपकार ही किया करता है । ठीक है -राहुके द्वारा पीड़ित हो करके भी चन्द्र क्या अमृतके द्वारा उसको प्रसन्न नहीं करता है ? अवश्य ही प्रसन्न करता है ||१३||
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जिस प्रकार चन्द्रमा में स्वभावसे शीतलता तथा सूर्यमें स्वभाव से उष्णता होती है। उसी प्रकार से सज्जनमें स्वभावसे आविर्भूत गुणको तथा दुर्जनमें स्वभाव से आविर्भूत दोषको देख करके विवेकी पुरुष सज्जनसे अनुराग और दुर्जनसे द्वेष नहीं किया करते हैं ॥ १४ ॥
११) इन चोष्णते for प्रप्लोषते । १२) इ सृष्टा for स्रष्ट्रा; परमोपकारं । १३) ड इ निपीड्य ।
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