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________________ ४ अमित गतिविरचिता शरीरजानामिव भाक्तिकानामनुग्रहार्थं पितरो धनानि । यच्छन्ति शास्त्राण्युपसेदुषां ये ते ऽध्यापका मे विधुनन्तु दुःखम् ॥४ कथिताशेषजगत्त्रयं ये विदारयन्ते शमशीलशस्त्रैः । कषायशत्रु मम साधुयोधाः कुर्वन्तु ते सिद्धिवधूवरत्वम् ॥५ यस्याः प्रसादेन विनीतचेता दुर्लङ्घयशास्त्रार्णवपारमेति । सरस्वती मे विदधातु सिद्धि सा चिन्तितां कामदुघेव धेनुः ॥६ ४) १. यथा पुत्राणां भक्तानाम्; क पुत्राणाम् । २. उपकारार्थम् । ३ ददति । ४ समीपवर्तनां शिष्याणाम् । ५. विध्वंसनं कुरु [ कुर्वन्तु ]; क दूरीकुर्वन्तु । ५ ) १. क पीडिताः । ६) १. शास्त्रे एकलोलीचित्तः, शास्त्राभ्यासी पुमान् । सूर्योका अध्यारोप करते हुए यह बतलाया है कि जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणोंके द्वारा कमलोंको विकसित किया करता है उसी प्रकारसे आचार्य अपने वचनों (समीचीन उपदेश ) के द्वारा भव्य जीवोंके मनको विकसित (आह्लादित ) किया करते हैं । तथा सूर्य जैसे दोषोदयको (रात्रि के उदयको ) नष्ट करता है वैसे ही आचार्य भी उस दोषोदयको - दोषोंकी उत्पत्तिको - नष्ट किया करते हैं । फिर भी सूर्यकी अपेक्षा आचार्यमें यह विशेषता देखी जाती है कि सूर्य जिन कमलोंको दिनमें विकसित करता है वे ही रात में निद्रित (मुकुलित ) हो जाते हैं, परन्तु आचार्य जिन भव्य जीवोंके मनको धर्मोपदेशके द्वारा विकसित (प्रफुल्लित) करते हैं उनका मन फिर कभी निद्रित ( विवेकरहित ) नहीं होता है- वह सदा सन्मार्ग में प्रवृत्त रहता है । इस प्रकार आचार्यके स्वरूपका विचार करके ग्रन्थकार उनसे यह प्रार्थना करते हैं कि जिस प्रकार सूर्य उदयको प्राप्त होता हुआ मार्गको दिखलाकर पथिक जनोंके गमनागमन में सहायक होता है उसी प्रकार से वे आचार्य परमेष्ठी अपने दिव्य उपदेशके द्वारा निर्बाध मोक्षमार्गको प्रगट करके मुझे उसमें प्रवृत्त होनेके लिये सहायता करें ||३|| जिस प्रकार पिता जन अपने पुत्रोंके उपकारके लिये उन्हें धनको दिया करते हैं उसी प्रकार जो अध्यापक ( पाठक या उपाध्याय ) अपने निकटवर्ती शिष्यों के उपकारके लिये उन्हें शास्त्रोंको दिया करते हैं - शास्त्रोंका रहस्य बतलाते हैं - वे उपाध्याय परमेष्ठी मेरे दुखको दूर करें ||४|| जो साधुरूप सुभट तीनों लोकोंके समस्त प्राणियोंको कष्ट पहुँचानेवाले कपायरूप शत्रुको शान्ति एवं शीलरूप शस्त्रोंके द्वारा विदीर्ण किया करते हैं वे साधुरूप सुभट मेरे लिये मुक्तिरूपी रमणीके वरण (परिणयन ) में सहायक होवें- मुझे मुक्ति प्रदान करें ||५|| जिसके प्रसाद से अभ्यासमें एकाग्रचित्त हुआ प्राणी दुर्गम आगमरूप समुद्रके उस पार पहुँच जाता है वह सरस्वती ( जिनवाणी ) मुझे जिस प्रकार कामधेनु गाय प्राणियोंके लिये चिन्तित पदार्थको दिया करती है उसी प्रकार अभीष्ट सिद्धिको प्रदान करे ||६|| (४) इ पितरी । ५) इ शमसाधु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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