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________________ २२८ अमितगतिविरचिता स्थितोऽहं तापसस्थाने कुर्वाणो दुष्करं तपः । न श्रेयस्कार्यमारभ्य प्रमाद्यन्ति हि पण्डिताः ॥३४ मया गतवता श्रुत्वा साकेतपुरमेकदा। माता विवाह्यमाना स्वा वरेणान्येन वीक्षिता ॥३५ विनिवेद्य स्वसंबन्धं मया पृष्टास्तपोधनाः । आचक्षते न दोषो ऽस्ति परेणास्या विवाहने ॥३६ द्रौपद्याः पञ्च भर्तारः कथ्यन्ते यत्र पाण्डवाः । जनन्यास्तव को दोषस्तत्र भत द्वये सति ॥३७ एकदा' परिणीतापि विपन्ने दैवयोगतः । भर्तर्यक्षतयोनिः स्त्री पुनः संस्कारमर्हति ॥३८ प्रतीक्षेतीष्ट वर्षाणि प्रसूता वनिता सती। अप्रसूता तु चत्वारि प्रोषिते सति भर्तरि ॥३९ पञ्चस्वेषु गृहीतेषु कारणे सति भतषु । न दोषो विद्यते स्त्रीणां व्यासादीनामिदं वचः ॥४० ३६) १. ते सर्वे ब्रतः । (?) ३८) १. एकवारम् । २. मृते । ३. अभग्नयोनि । ४. विवाहम् । ३९) १. मार्गम् अवलोकयति । २. प्रदेशे वसिते; क मरणे। निकल पड़ा। फिर मैं सिरको मुड़ाकर तापस हो गया और तापसोंके साथ चल दिया ॥३३॥ इस प्रकार तापसोंके साथ जाकर में कठोर तपको करता हुआ तापसाश्रममें स्थित हो गया । सो ठीक भी है, क्योंकि, पण्डित जन जिस कल्याणकारी कार्यको प्रारम्भ करते हैं उसके पूरा करने में वे कभी प्रमाद नहीं किया करते हैं ॥३४॥ ___ एक बार मैं अयोध्यापुरीमें गया और वहाँ, जैसा कि मैंने सुना था, अपनी माताको दूसरे वरके द्वारा विवाहित देख लिया ।।३५।। तत्पश्चात् मैंने अपने सम्बन्ध में निवेदन करके अपने पूर्व वृत्तको कहकर उसके विषयमें तापसोंसे पूछा । उत्तरमें वे बोले कि उसके दूसरे वरके साथ विवाह कर लेनेमें कोई दोष नहीं है । कारण कि जहाँ द्रौपदीके पाँच पाण्डव पति कहे जाते हैं वहाँ तेरी माताके दो पतियोंके होनेपर कौन-सा दोष है ? कुछ भी दोष नहीं है। एक बार विवाहके हो जानेपर भी यदि दुर्भाग्यसे पति विपत्तिको प्राप्त होता है-मर जाता है तो वैसी अवस्थामें अक्षतयोनि स्त्रीका-यदि उसका पूर्व पतिके साथ संयोग नहीं हुआ है तो उस अवस्थामें-फिरसे विवाह हो सकता है, अर्थात् उसमें कोई दोष नहीं है। पति के प्रवासमें रहनेपर प्रसूत स्त्रीकोजिसके सन्तान उत्पन्न हो चुकी है उसको-आठ वर्ष तक तथा सन्तानोत्पत्तिसे रहित अप्रसूत स्त्रीको चार वर्ष तक पतिके आगमनकी प्रतीक्षा करनी चाहिए-तत्पश्चात् उसके पुनर्विवाह ३४) अ च for हि । ३५) ब क इ स्मृत्वा for श्रुत्वा । ३६) ब दृष्टास्तपो । ३७) क पञ्च for यत्र । ३९) ब अप्रसूतात्र । ४०) ब पञ्चकेषु । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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