SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ अमितगतिविरचिता छेदतापननिघर्षताडनस्तापनीयमिव शुद्धबुद्धिभिः । शीलसंयमतपोदयागुणैर्धर्मरत्नमनघं परीक्ष्यते ॥९९ देवतागर्मचरित्रलिङ्गिनो ये परीक्ष्य विमलानुपासते। ते निकर्त्य लघुकर्मशृङ्खलं यान्ति पावनमनश्वरं पदम् ॥१०० देवेन देवो हितमाप्तुकामैः शास्त्रेण शास्त्रं परिमुच्य दर्पम् । परीक्षणीयं महनीयबोधैर्धर्मेण धर्मो यतिना यतिश्च ॥१०१ देवो विध्वस्तकर्मा भुवनपतिनुतो ज्ञातलोकव्यवस्थो ___धर्मों रागादिदोषप्रमथनकुशलः प्राणिरक्षाप्रधानः । हेयोपादेयतत्त्वप्रकटननिपुणं युक्तितः शास्त्रमिष्टं वैराग्यालंकृताङ्गो यतिरमितगतिस्त्यक्तसंगोपभोगः ॥१०२ इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायां त्रयोदशः परिच्छेदः ॥१३॥ __९९) १. हेम । २. क्षमादिस्वभाव । १००) १. शास्त्रआचार । २. हत्वा । १०२) १. स्तवितः । २. स्वरूपः । ३. मुख्यः । जिस प्रकार सराफ काटना, तपाना, घिसना और ठोकना इन क्रियाओंके द्वारा सुवर्णकी परीक्षा किया करते हैं उसी प्रकार निर्मल बुद्धिके धारक प्राणी शील, संयम, तप और दया इन गुणोंके द्वारा निर्मल धर्मकी परीक्षा किया करते हैं ।।९९॥ जो विवेकी जन परीक्षा करके निर्दोष देव, शास्त्र, चारित्र और गुरुकी उपासनाआराधना-किया करते हैं वे शीघ्र ही कर्म-साँकलको काटकर पवित्र व अविनश्वर मोक्षपदको प्राप्त करते हैं ॥१०॥ ___जो स्तुत्य ज्ञानके धारक विद्वान् हैं उन्हें आत्महितकी प्राप्ति की अभिलाषासे अभिमानको छोड़कर देवसे देवकी, शास्त्रसे शास्त्रकी, धर्मसे धर्मकी और गुरुसे गुरुकी परीक्षा करनी चाहिए ।।१०१॥ ____ जो सब कर्मोंका नाश करके इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवती इन तीन लोकके स्वामियों के द्वारा स्तुत होता हुआ समस्त लोककी व्यवस्थाको ज्ञात कर चुका है उसे देव स्वीकार करना चाहिए । जो प्राणिरक्षणकी प्रधानतासे संयुक्त होता हुआ रागादिक दोषोंके दूर करने में समर्थ है वह धर्म कहा जाता है। जो हेय और उपादेय तत्त्वके प्रकट करनेमें दक्ष है वह शास्त्र अभीष्ट माना गया है । तथा जिसका शरीर वैराग्यसे विभूषित है और जो परिग्रह के दुष्ट संसर्गसे रहित होता हुआ अपरिमित ज्ञानस्वरूप है उसे गुरु जानना चाहिए ॥१०२।। इस प्रकार आचार्य अमितगतिविरचित धर्मपरीक्षामें तेरहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१३॥ ९९) अ शुद्धि । १००) ड निकृत्य ।१०२) अ प्रकटनप्रवणम्; अ°संगोपसंगः, क ड इ संगोप्यभङ्गः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy