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________________ २२० अमितगतिविरचिता श्रुतो देवविशेषो यः पुराणार्थश्च यस्त्वया। न विचारवतां तत्रं घटते किंचन स्फुटम् ॥८९ नारायणश्चतुर्बोहुविरिचिश्चतुराननः । त्रिनेत्रः पार्वतीनाथः केनेदं प्रतिपद्यते ॥९० एकास्यो द्विभुजो द्वयाः सर्वो जगति दृश्यते । मिथ्यात्वाकुलितोंकैरन्यथा परिकल्प्यते ॥९१ अनादिनिधनो लोको व्योमस्थो कृत्रिमः स्थिरः । न तस्य विद्यते कर्ता गगनस्येव कश्चन ॥९२ । प्रेरिताः स्वकृतपूर्वकर्मभिः सर्वदा गतिचतुष्टये ऽङ्गिनः । पर्यटन्ति सुखदुःखभागिनस्तत्रं पर्णनिचया इवानिलैः ।।१३ घ्नन्ति ये विपदमात्मनो ऽपि नो ब्रह्मधूजटिमुरारिकौशिकोः । ते परस्य सुखकारणं कथं कोविदैः कथमिदं प्रतीयते ॥९४ ८९) १. देवस्वरूपः । २. देवादी। ९०) १. क ब्रह्मा। २. मन्यते केन। ९१) १. नेत्रे । ९३) १. गतिचतुष्टये। ९४) १. क ब्रह्माहरविष्णुपुरंदराः। हे मित्र ! तुमने जो देवविशेषका-अन्य जनोंके द्वारा देवरूपसे परिकल्पित ब्रह्मा आदिका-स्वरूप और उनके पुराणका अभिप्राय सुना है उसपर जो बुद्धिमान विचार करते हैं उन्हें स्पष्टतया उसमें कुछ भी संगत नहीं प्रतीत होता है उन्हें वह सब असंगत ही दिखता है। नारायण चार भुजाओंसे संयुक्त, ब्रह्मा चार मुखोंसे संयुक्त और पार्वतीका पति शम्भु तीन नेत्रोंसे संयुक्त है; इसे कौन स्वीकार कर सकता है ? उसे कोई भी बुद्धिमान स्वीकार नहीं कर सकता है । कारण यह कि लोकमें सब ही जन एक मुख, दो भुजाओं और दो नेत्रोंसे ही संयुक्त देखे जाते हैं; न कि चार मुख, चार भुजाओं और तीन नेत्रोंसे संयुक्त । फिर भी मिथ्यात्वके वशीभूत होकर आकुलताको प्राप्त हुए किन्हीं लोगोंने उसके विपरीत कल्पना की है ।।८९-९१॥ __ आकाशके मध्यमें स्थित यह लोक अनादि-निधन, अकृत्रिम और नित्य है। जिस प्रकार कोई भी आकाशका निर्माता (रचयिता) नहीं है उसी प्रकार उस लोकका भी कोईब्रह्मा आदि-निर्माता नहीं है, वह आकाशके समान ही स्वयंसिद्ध व अनादि-निधन है ।।१२।। जिस प्रकार सूखे पत्तोंके समूह वायुसे प्रेरित होकर इधर-उधर परिभ्रमण किया करते हैं उसी प्रकार प्राणिसमूह अपने पूर्वोपार्जित कर्मोंसे प्रेरित होकर सुख अथवा दुखका अनुभवन करते हुए नारकादि चारों गतियोंमें सदा ही परिभ्रमण किया करते हैं ॥१३॥ जो ब्रह्मा, महादेव, विष्णु और इन्द्र अपनी ही आपत्तिको नहीं नष्ट कर सकते हैं वे ८९) इविशेषो ऽयं....यत्त्वया....विचारयताम् । ९२) ब क ड इ नैतस्य । ९३) क ड इ स्वकृतकर्मभिः सदा सर्वथा गति । ९४) अ ते परस्परसुखदुःखकारणम् इष्टकोविदः....प्रदीयते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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