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________________ १७९ धर्मपरीक्षा-११ सा तं सर्वतपोरिक्तं कृत्वागात्सुरसुन्दरी। मोहयित्वाखिलं रामा वञ्चयन्ति हि रागिणम् ॥४७ इमामनीक्षमाणो ऽसौ विलक्षत्वमुपागतः । दर्शनागतदेवेभ्यः कुप्यति स्म निरस्तधीः ॥४८ खरवक्त्रेण देवानां प्रावर्तत स खादने । विलक्षः सकलो ऽन्येभ्यः स्वभावेनैव कुप्यति ॥४९ अवोचन्नमरा गत्वा शंभोरेतस्य' चेष्टितम् । आत्मदुःखप्रतीकारे यतते सकलो जनः ॥५० चकतं मस्तकं तस्य शम्भुरागत्य पञ्चमम् । परापकारिणो मूर्धा छिद्यते को ऽत्र संशयः ॥५१ स्वदीयहस्ततो नेदं पतिष्यति शिरो मम । इति तं शप्तवानेष ब्रह्महत्यापरं रुषा ॥५२ ४८) १. तिलोत्तमाम् । २. व्याकुलत्वं खेदखिन्नम् । ४९) १. खेदखिन्नः। ५०) १. ब्रह्मणः। ५२) १. ईश्वरम् । २. सरा (श्रा) पितवान् । ३. ब्रह्मा । अन्त में वह तिलोत्तमा अप्सरा इन्द्रकी इच्छानुसार उन ब्रह्माजीको सब तपोंसे भ्रष्ट करके चली गयी। ठीक है, स्त्रियाँ समस्त रागी जनको मोहित करके ठगा ही करती हैं ॥४७॥ तब उस तिलोत्तमाको न देखता हुआ वह हतबुद्धि ब्रह्मा लज्जाको प्राप्त हुआ। उस समय जो देव दर्शनके लिए आये थे उनके ऊपर उसे अतिशय क्रोध हुआ। इससे वह उस गर्दभमुखसे उन देवोंके खानेमें प्रवृत्त हुआ। ठीक है, लज्जा ( अथवा खेद ) को प्राप्त हुए सब ही जन स्वभावतः दूसरोंके ऊपर क्रोध किया करते हैं ॥४८-४९।। तब उन देवोंने महादेव के पास जाकर उनसे ब्रह्माकी उक्त प्रवृत्तिके सम्बन्धमें निवेदन किया । ठीक है, अपने दुखको दूर करने के लिए सब ही जन प्रयत्न किया करते हैं ॥५०॥ इससे महादेवने आकर ब्रह्माके उस पाँचवें मस्तकको काट डाला। ठीक है, जो दूसरोंका अपकार करता है उसका मस्तक छेदा ही जाता है, इसमें कुछ सन्देह नहीं है ॥५१॥ तब ब्रह्माने क्रोधके वश होकर ब्रह्महत्यामें संलग्न उन महादेवको यह शाप दे डाला कि तुम्हारे हाथसे यह मेरा शिर गिरेगा नहीं ॥५२॥ ४७) ब रागिणाम् । ४८) क द दर्शनायात । ४९) अ सकलस्तेभ्यः''कुप्यते । । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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