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________________ [११] अथ प्राहुरिमं विप्रा वयं मूर्वाः किमीदृशाः । न विद्मो येन युक्त्यापि घटमानं वचः स्फुटम् ॥१ ततोऽभणीत खगाधीशनन्दनो बुधनन्दनः। यद्येवं श्रूयतां विप्राः स्फुटयामि मनोगतम् ॥२ तापसस्तपसामासीदथ मण्डपकौशिकः । निवासः कृतदोषाणां महसामिव भास्करः ॥३ विशुद्धविग्रहैरेष नक्षत्ररिव चन्द्रमाः। निविष्टो' भोजनं भोक्तुं तापसैरेकदा सह ॥४ संस्पर्शभीतचेतस्काश्चण्डालमिव गर्हितम् । एन' निषण्णमालोक्य सर्वे ते तरसोत्थिताः॥५ १) १. क मनोवेगं प्रति। २) १. क प्रगटयामि। ४) १. उपविष्टः । ५) १. मण्डपकौशिकम् । २. उपविष्टम् । मनोवेगके उपर्युक्त भाषणको सुनकर ब्राह्मण उससे बोले कि क्या हम लोग ऐसे मूर्ख हैं जो युक्तिसे संगत वचनको भी स्पष्टतया न समझ सकें ॥१॥ यह सुनकर विद्याधरराजका वह विद्वान् पुत्र बोला कि हे विप्रो ! यदि ऐसा हैजब आप विचारपूर्वक युक्तिसंगत वचनके ग्राहक हैं-तब फिर मैं अपने मनोगत भावको स्पष्ट करता हूँ, उसे सुनिए ।।२।। तपोंको तपनेवाला एक मण्डपकौशिक नामका तपस्वी था। जिस प्रकार सूर्य तेजपुंजका निवासस्थान है उसी प्रकार वह किये गये दोषोंका निवासस्थान था ॥३॥ एक समय वह भोजनका उपभोग करनेके लिए पवित्र शरीरवाले तपस्वियों के साथ इस प्रकारसे स्थित था जिस प्रकार कि विशुद्ध शरीरवाले नक्षत्रोंके साथ चन्द्रमा स्थित होता है ॥४॥ वे सब तपस्वी घृणित चाण्डालके समान इसे बैठा हुआ देखकर मनमें उसके स्पर्शसे भयभीत होते हुए वहाँसे शीघ्र उठ बैठे ।।५।। २) ब ततो वेगात्; ब स्पष्टयामि, क स्पृष्टयामि for स्फुटयामि । ५) क एक, ड इ एवं for एनम्; इ विषण्णं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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