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अमितगतिविरचिता कि बलिर्याचितः पृथ्वों कृत्वा वामनरूपताम् । उच्चार्य वचनं दीनं दरिद्रेणेव दुर्वचः ॥२४ वहमानो ऽखिलं लोकं कि सीताविरहाग्निना कामीव सर्वतस्ततः सर्वज्ञो व्यापकः स्थिरः ॥२५ एवमादीनि कर्माणि किं युज्यन्ते महात्मनः । योगिगम्यस्य देवस्य वन्द्यस्य जगतां गुरोः ॥२६ यदीदृशानि कृत्यानि विरागः कुरुते हरिः । तदा नौ' निःस्वसुतयोः को दोषो दारुविक्रये ॥२७ अथ तस्येशी क्रीडा' मुरारेः परमेष्ठिनः । तदा सत्त्वानुरूपेणे सास्माकं केन वार्यते ॥२८ खेटस्येति वचः श्रुत्वा जजल्पुद्विजपुङ्गवाः । अस्माकमीदृशो देवो दीयते किं तवोत्तरम् ॥२९ इदानीं मानसे भ्रान्तिरस्माकमपि जायते । करोतीदृशकार्याणि परमेष्ठी कथं हरिः ॥३०
२५) १. उदरे । २. वियोग । २६) १. विष्णोः । २७) १. आवयोः । २. दरिद्री [5] पुत्रयोः। २८) १. विद्यते । २. शक्त्यनुसारेण । ३. क्रीडा।
उसने बौनेके रूपको धारण करके दरिद्रके समान दीनतासे परिपूर्ण दूषित वचनोंको कहते हुए बलि राजासे पृथिवीकी याचना क्यों की थी ? ॥२४॥
तथा वह सर्वज्ञ-विश्वका ज्ञाता-द्रष्टा, व्यापक और स्थिर होकर समस्त लोकको धारण करता हुआ कामी पुरुषके समान सीताके वियोगसे सर्वतः क्यों सन्तप्त हुआ ? ||२५।।
इस प्रकारसे जो देव योगीजनोंके द्वारा जाना जाता है, वन्दनीय है व तीनों लोकोंका स्वामी है उस महात्माको क्या इस प्रकारके कार्य करना योग्य है ? ।।२६।।
यदि वह विष्णु वीतराग होकर इस प्रकारके कार्योंको करता है तो निर्धनके पुत्र होनेसे हम दोनोंको लकड़ियोंके बेचने में क्या दोष है ? ||२७||
यदि कहा जाये कि यह तो उस विष्णु परमेश्वरकी क्रीड़ा है तो फिर बलके अनुसार हम लोगोंके भी उस क्रीडाको कौन रोक सकता है ? नहीं रोक सकता है ।।२८||
मनोवेग विद्याधरके इस कथनको सुनकर वे श्रेष्ठ ब्राह्मण बोले कि हमारा देव इसी प्रकारका है, इसका हम तुम्हें क्या उत्तर दे सकते हैं ? ॥२९।।
__इस समय हम लोगोंके मनमें भी यह सन्देह होता है कि वह विष्णु परमेष्ठी ( देव ) होकर इस प्रकारके कार्योंको कैसे करता है ? ॥३०॥
२४) अ याचते....रूपिता; ब दुर्ववम् । २७) ब क ड इ नो निःस्वपुत्राणां । ३०) ब क वर्तते for जायते; अकरोतीन्द्रिय , क ड करोतीदृशि ।
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