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________________ १५० अमितगतिविरचिता आहूय त्वरया कृत्वा दोषोत्पत्तिनिवेदनम् । तस्याहं दर्शितः श्वश्र्वा वैद्यस्यातुरेचित्तया ॥७८ शङ्खध्मस्येवे मे दृष्टवा कपोलो ग्रोवनिष्ठरौ। स्पृष्ट्वा हस्तेन सोऽध्यासोदिङ्गिताकारपण्डितः ॥७२ अचवितं मुखे क्षिप्तं किंचनास्य भविष्यति । बुभुक्षार्तस्य शङ्के ऽहं चेष्टान्यस्य न होदृशी'॥८० खट्वाधःस्थं भाजनं तण्डुलानां दृष्ट्वा वैद्यो भाषते स्मेति दक्षः। माताधिस्तण्डुलीयो दुरन्तः प्राणच्छेदी कृच्छ्र साध्यो ऽस्य जातः॥ भूरि द्रव्यं का क्षितं मे यदि त्वं दत्से रोग हन्मि सूनोस्तदाहम् । श्वश्र्वा प्रोक्तं वैद्य दास्ये कुरु त्वं नीरोगत्वं जीवितादेष बालः ॥८२ शस्त्रेणातः पाटयित्वा कपोलौ शालीयानां तण्डुलानां समानाः।। नानाकारा दर्शितास्तेन कीटास्तासां स्त्रीणां कुर्वतीनां विषादम् ॥८३ ७८) १. वैद्यम् । २. पोडित । ७९) १. शङ्खवादित [दक] पुरुषस्येव । २. क पाषाणस्य । ३. वैद्यः । ४. हृदि चिन्तयामास । ८०) १. भवति । वैद्य अपने वैद्यस्वरूपको-आयुर्वेद-विषयक प्रवीणताको-प्रकट करता हुआ वहाँ आ पहुँचा ।।७७॥ तब व्याकुलचित्त होकर मेरी सासने उस वैद्यको तुरन्त बुलाया और मेरे मुखविषयक दोष ( रोग) की उत्पत्तिके सम्बन्ध में निवेदन करते हुए मुझे उसके लिए दिखलाया ॥७८॥ वह शरीरकी चेष्टाको जानता था। इसीलिए उसने शंख ( अथवा शंखको बजानेवाले पुरुष ) के समान फूले हुए व पत्थरके समान कठोर मेरे गालोंका हाथसे स्पर्श करके विचार किया कि भूखसे पीड़ित होनेके कारण इसके मुंहके भीतर कोई वस्तु बिना चबायी हुई रखी गयी है, ऐसी मुझे शंका होती है; क्योंकि, इस प्रकारकी चेष्टा दूसरे किसीकी नहीं होती है ।।७९-८०॥ तत्पश्चात् उस चतुर वैद्यने खाटके नीचे स्थित चावलोंके बर्तनको देखकर कहा कि हे माता ! इसको तन्दुलीय व्याधि-चावलोंके रखनेसे उत्पन्न हुआ विकार-हुआ है । यह रोग प्राणघातक, दुर्विनाश और कष्टसाध्य है। यदि तुम मुझे मेरी इच्छानुसार बहुत-सा धन देती हो तो मैं तुम्हारे पुत्रके इस रोगको नष्ट कर देता हूँ। इसपर सासने कहा कि हे वैद्य ! मैं तुम्हें तुम्हारी इच्छानुसार बहुत-सा धन दूंगी। तुम इसके रोगको दूर कर दो, जिससे यह बालक जीता रहे ॥८१-८२॥ तब उसने शस्त्रसे मेरे गालोंको चीरकर शोक करनेवाली उन स्त्रियोंको शालिधानके चावलकणोंके समान अनेक आकारवाले कीड़ोंको दिखलाया ।।८।। ७८) अ दोषोत्पत्तिनिवेद्यताम् । ७९) अ शंखस्येव च मे, ड शंखधास्येव । ८२) ब ड इ चोक्तं for प्रोक्तम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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