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धर्मपरीक्षा-९
यो जल्पत्यावयोः पूर्वं हार्यन्ते तेन निश्चितम् । कृशोदरि दशापूपाः सर्पिर्गुडविलोडिताः ॥४६ ततो वल्लभया प्रोक्तमेवमस्तु विसंशयम् । कुलीनाभिर्वचो भर्तुर्न क्वापि प्रतिकूल्यते ॥४७ आवयोः स्थितयोरेवं प्रतिज्ञारूढयोः सतोः । प्रविश्य सकलं द्रव्यं चौरेणाहारि मन्दिरम् ॥४८ नतेने किंचन त्यक्तं गृह्णता द्रविणं गृहे । छिद्रे हि जारचौराणां जायते प्रभविष्णुता ॥४९ प्रियाया: क्रष्टुमारब्धे स्तेनेने परिधानके ।
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जल्पितं रे दुराचार त्वं किमद्याप्युपेक्षसे ॥५० आकृष्टे मे ऽन्तरीये ऽपि त्वं जीवसि कथं शठ । जीवितव्यं कुलीनानां भार्यापरिभवावधि ॥५१
४७) १. उल्लङ्घ्यते; क न निषिद्धि [ध्य] ते । ४९) १. चौरेण । २. शक्तिः ।
५०) १. चौरेण । २. तया भार्यया । ३. क अवलोक्यते ।
प्रिये ! हम दोनोंमें से जो कोई पहले भाषण करेगा वह निश्चयतः घी और गुड़से परिपूर्ण दस पूवोंको हारेगा । उसे सुस्वादु दस पूवे देने पड़ेंगे ।।४५-४६ ॥
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इसपर उसकी प्रिय पत्नीने कहा कि ठीक है, निःसन्देह ऐसा ही हो । सो यह उचित ही है, क्योंकि कुलीन स्त्रियाँ कभी पतिके वचनके विरुद्ध प्रवृत्ति नहीं किया करती हैं ||४७||
इस प्रकार हम दोनों प्रतिज्ञाबद्ध होकर मौनसे स्थित थे। उधर चोरने घरमें प्रविष्ट होकर समस्त धनका अपहरण कर लिया ॥४८॥
उसने धनका अपहरण करते हुए घरके भीतर कुछ भी शेष नहीं छोड़ा था। ठीक हैछिद्र (योग्य अवसर अथवा दोष- मौन) के होनेपर व्यभिचारियों और चोरोंकी प्रभुता व्याप्त हो जाती है । अभिप्राय यह कि जिस प्रकार कुछ दोष पाकर व्यभिचारी जनोंका साहस बढ़ जाता है उसी प्रकार उस दोषको ( अथवा भित्ति आदिमें छेदको भी ) पाकर चोरोंका भी साहस बढ़ जाता है ॥ ४९ ॥
अन्तमें जब चोरने मेरी प्रिय पत्नीकी साड़ी को भी खींचना प्रारम्भ कर दिया तब वह बोली कि अरे दुष्ट ! तू क्या अब भी उपेक्षा कर रहा है ? हे मूर्ख ! इस चोर के द्वारा मेरे अधोवस्त्र के खींचे जानेपर भी- मुझे नंगा करनेपर भी - तू किस प्रकार जीवित रह रहा है ? इससे तो तेरा मर जाना ही अच्छा था । कारण यह कि कुलीन पुरुष तबतक ही जीवित रहते हैं जबतक कि उनके समक्ष उनकी स्त्रीका तिरस्कार नहीं किया जाता है-उसकी लज्जा नहीं लूटी जाती है ॥५०-५१ ॥
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४६) अ क इ जल्पतावयोः; अ ड विलोलिताः । ४७ ) अ को ऽपि । ४८) ब अनयो:, इ मन्दिरे । ४९) इ किंचनात्यक्तम् । ५०) अ स्तेनेधः परि; ब च for रे । ५१ ) अ भवाविधिः ।
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