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________________ प्रस्तावना १३ अन्य ग्रन्थकारोंमें से थे जिन्हें हम जानते हैं। जबतक यह रचना उपलब्ध नहीं होती है और इसकी हरिषेण और अमितगतिको उत्तरवर्ती रचनाओंसे तुलना नहीं की जाती है, इस प्रश्नका कोई भी परीक्षणीय ( Tentative ) बना रहेगा। हरिषेणने जिस ढंगसे पूर्ववर्ती धर्मपरीक्षाका निर्देश किया है उससे मालूम होता है कि उनकी प्रायः समस्त सामग्री जयरामकी रचनामें मौजूद थी। इससे हम स्वभावतः इस निर्णयपर पहुँचते हैं कि धर्मपरीक्षाको सम्पूर्ण कथावस्तु जयरामसे ली हुई होना चाहिए और इस तरह अमितगति हरिषेणके ऋणी हैं यह प्रश्न ही नहीं उठता। यह अधिक सम्भव है अमितगतिने अपनी धर्मपरीक्षाकी रचना जयरामकी मूल प्राकृत रचनाके आधारपर की हो, जैसे कि उन्होंने अपने पंचसंग्रह और आराधनाकी रचना प्राकृतके पूर्ववर्ती उन-उन ग्रन्थोंके आधारपर की है। संस्कृत रचनाके लिए अपभ्रंश मूलग्रन्थका उपयोग करनेकी अपेक्षा प्राकृतमूल ( महाराष्ट्री या शौरसेनी ) का उपयोग करना सुलभ है।। ७. उपर्युक्त प्रश्नके उत्तरके प्रसंगमें मैं प्रस्तुत समस्यापर कुछ और प्रकाश डालना चाहता हूँ। अमितगतिकी धर्मपरीक्षामें इस प्रकारके अनेक वाक्यसमह हैं, जिनमें हम प्रत्यक्ष प्राकृतपन देख सकते हैं । यदि यह प्राकृतपन हरिषेणकी धर्मपरीक्षामें भो पाया जाता तो कोई ठीक निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता, क्योंकि उस स्थितिमें हरिषेण और अमितगति-दोनों की ही रचनाएँ जयरामकी रचनानुसारी होती। लेकिन यदि यह चीज प्रसंगानुसार हरिषेणकी रचनामें नहीं है तो हम कह सकते हैं कि अमितगति किसी अन्य पूर्ववर्ती प्राकृत रचनाके ऋणी है और सम्भवतः वह जयरामकी है। यहाँपर इस तरहके दोनों रचनाओंके कुछ प्रसंग साथ-साथ दिये जाते हैं (१) अमितगतिने ३,६ में 'हट्ट' शब्दका उपयोग किया है। (१) स्थानोंको तुलनात्मक गिनती करते हुए हरिषेणने इस शब्दका उपयोग नहीं किया है । देखिए १,१७। (२) अमितगतिने ५, ३९ और ७, ५ में जेम् धातुका उपयोग किया है जो इस प्रकार है ततोऽवादीन्नृपो नास्य दीयते यदि भूषणम् । न जेमति तदा साधो सर्वथा किं करोम्यहम् ॥ [२] तुलनात्मक उद्धरणको देखते हुए हरिषेणने कड़वक ११-१४ में इस क्रियाका उपयोग नहीं किया है । तथा दूसरे उद्धरण (११-२४) में उन्होंने भुज् क्रियाका व्यवहार किया है ता दुद्धरु पभणइ णउ भुंजड, जइ तहोणउ आहरणउ दिज्जइ । [३] अमितगतिने (४, १६ में) योषा शब्दका इस प्रकार शाब्दिक विश्लेषण किया है यतो जोषयति क्षिप्रं विश्वं योषा ततो मता। विदधाति यतः क्रोधं भामिनी भण्यते ततः ।। [३] इसमें सन्देह नहीं है कि अमितगतिकी यह शाब्दिक व्युत्पत्ति प्राकृत के मूल ग्रन्थके आधारपर की गयी है, लेकिन हरिषेणने तुलनात्मक प्रसंगमें इस प्रकारको कोई शाब्दिक व्युत्पत्ति नहीं की है। देखो २, १८। [४] अमितगतिने 'अहिल' शब्दका प्रयोग किया है । देखो १३, २३ । [४] हरिषेणने तुलनात्मक उद्धरण में 'ग्रहिल शब्दका प्रयोग नहीं किया है । [५] अमितगतिने ( १५, २३ में ) 'कचरा' शब्दका प्रयोग किया है । [५] तुलनात्मक कडवक (८, १) में हरिषेणने इय शब्दका प्रयोग नहीं किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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