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________________ १२८ अमिलगतिविरचिता यदीयल्लम्यते द्रव्यं खण्डेनैकेन विक्रये । समस्तानां तदा मूल्यं वृक्षाणां केन गण्यते ॥४१ निधानसदृशं क्षेत्र वितीर्ण मम भूभुजा। अज्ञानिना बत व्यर्थ हारितं पापिना मया ॥४२ अकरिष्यमहं रक्षां द्रुमाणां यदि यत्नतः। अभविष्यत्तदा द्रव्यमाजन्मसुखसाधनम् ॥४३ इत्थं स हालिको दूनः पश्चात्तापाग्निना चिरम् । दुःसहेनानिवार्येण विरहीवे मनोभुवा ॥४४ महारम्भेण यः प्राप्य द्रव्यं नाशयते ऽधमः । हलीव लभते तापं दुनिवारमसौ सदा ॥४५ सारासाराणि यो वेत्ति न वस्तूनि निरस्तधीः । निरस्यति करप्राप्तं रत्नमेषो ऽन्यदुर्लभम् ॥४६ स हैमेन हलेनोर्वोमर्कमूलाय कर्षति । हेयादेयानि वस्तूनि यो नालोचयते कुधीः ॥४७ ४१) १. सति । ४२) १. क दत्तम् । ४४) १. तापितः । २. वियोगी । ३. कन्दर्पण। उसने विचार किया कि उन वृक्षोंके एक ही टुकड़ेको बेचनेसे यदि इतना धन प्राप्त होता है तो उन सब ही वृक्षोंके मूल्यको कौन आँक सकता है-उनसे अपरिमित धनराशि प्राप्त की जा सकती थी। राजाने मुझे निधिके समान उस विस्तृत खेतको दिया था। किन्तु खेद है कि मुझ-जैसे अज्ञानी व पापीने उसे यों ही नष्ट कर दिया। यदि मैंने प्रयत्नपूर्वक उन वृक्षोंकी रक्षा की होती तो मुझे उनसे जीवनपर्यन्त सुखको सिद्ध करनेवाला धन प्राप्त होता ।।४१-४३॥ इस प्रकारसे वह हलवाहक दीर्घकाल तक पश्चात्तापरूप अग्निसे सन्तप्त रहा जैसे कि अनिवार्य व दुःसह कामसे विरही मनुष्य सन्तप्त रहा करता है ॥४४॥ जो निकृष्ट मनुष्य बहुत आरम्भके द्वारा धनको प्राप्त करके नष्ट कर देता है वह उस पामरके समान निरन्तर दुर्निवार पश्चात्तापको प्राप्त होता है ।।४५।। जो नष्टबुद्धि सार व असारभूत वस्तुओंको नहीं जानता है वह दूसरोंको दुर्लभ ऐसे हाथमें प्राप्त हुए रत्नको नष्ट करता है, यह समझना चाहिए ॥४६॥ जो हेय और उपादेय वस्तुओंका विचार नहीं करता है वह मूर्ख मानो सुवर्णमय हलसे आकके मूल (अथवा तूल = रुई ) के लिए भूमिको जोतता है ॥४७॥ ४१) अ ब इ यदीदं लभ्यते । ४६) क ड इ रत्नमेषा सुदुर्ल° । ४७) क ड °मर्कतूलाय; भ क इ हेयाहेयानि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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