SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मपरीक्षा-८ १२३ मन्त्री भूपतिनाभाणि विरूपं भवता कृतम् । भद्रेदं गदितं यन्न ममास्य क्लेशकारणम् ॥७ पदाति क्लिष्टमक्लिष्टं भो सेवकमसेवकम् । समस्तं मन्त्रिणा ज्ञात्वा कथनीयं महीपतेः ॥८ स्वाध्यायः साधुवर्गेण गृहकृत्यं कुलस्त्रिया। प्रभुकृत्यममात्येन चिन्तनीयमहनिशम् ॥९ ततो भूपतिनावाचि हालिकस्तुष्टचेतसा । शङ्खराढामिधं भद्र मटम्बं स्वीकुरुत्तमम् ॥१. युक्तं भद्र गृहाणेदं प्रामः पञ्चशतप्रमैः। बवानर्वाञ्छितं वस्तु कल्पवृक्षरिवापरः ॥११ हालिकेन ततो ऽवाचि निशम्य नृपतेर्वचः। किं करिष्याम्यहं ग्रामैरेकाको देव भूरिभिः ॥१२ ग्रहीतुं तस्य युज्यन्ते दीयमानाः सहस्रशः। ग्रामाः पदातयो यस्य विद्यन्ते प्रतिपालकाः ॥१३ स ततो गदितो राज्ञा भद्र ग्रामैमनोरमैः। विद्यमानैः स्वयं भूत्या भविष्यन्ति प्रपालकाः॥१४ १३) १. हे राजन्, तस्य पुरुषस्य । ___ इस उत्तरको सुनकर राजाने मन्त्रीसे कहा कि हे सत्पुरुष ! आपने इसके उस क्लेशके कारणको जो मुझसे नहीं कहा है, यह विरुद्ध कार्य किया है-अच्छा नहीं किया। भो मन्त्रिन् ! कौन सैनिक क्लेश सह रहा है और नहीं सह रहा है तथा कौन सेवाकार्यको कर रहा है और कौन उसे नहीं कर रहा है, इस सबकी जानकारी प्राप्त करके मन्त्रीको राजासे कहना चाहिए । साधुसमूहको निरन्तर स्वाध्यायका, कुलीन स्त्रीको गृहस्वामी (पति) के कार्यका तथा मन्त्रीको सदा राजाके कार्यका चिन्तन करना चाहिए ।।७-९॥ तत्पश्चात् राजाने मनमें हर्षित होकर उस हालिकसे कहा कि हे भद्र ! मैं तुम्हें शंखराढ नामके मटम्ब (५०० ग्रामोंमें प्रधान-ति. प. ४-१३९९) को देता हूँ, तुम उस उत्तम मटम्बको स्वीकार करो। हे भद्र ! दूसरे कल्पवृक्षों के ही समान मानो अभीष्ट वस्तुको प्रदान करनेवाले पाँच सौ ग्रामोंसे संयुक्त इस मटम्बको तुम ग्रहण करो॥१०-११॥ राजाके इस वचनको सुनकर हालिक बोला कि हे देव ! मैं अकेला ही हूँ, अतएव इन बहुत-से ग्रामोंके द्वारा मैं क्या करूँगा ? इस प्रकारसे दिये जानेवाले हजारों ग्रामोंका ग्रहण तो उसके लिए योग्य हो सकता है जिसकी रक्षा करनेवाले पादचारी सैनिक विद्यमान हैं ॥१२-१३॥ यह सुनकर राजाने उससे कहा कि हे भद्र ! उन मनोहर ग्रामोंके आश्रयसे सब ग्रामोंकी रक्षा करनेवाले सेवक स्वयं हो जायेंगे । इसका कारण यह है कि ग्रामोंके आश्रयसे धन उत्पन्न ८) ड श्लिष्टम'; अमाक्लिष्टं; ब वा for भो। १०) क ड इ संकराटाभिधं; ब नाम for भद्र; इ मठं त्वं स्वी। ११) क ड गृहाणेमं; ड शतक्रमैः । १२) ड इ निशम्य वचनं नृपः । १४) अ क स्वयं भृत्या भविष्यन्ति, सर्वग्रामप्रपालकाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy