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________________ ११७ धर्मपरीक्षा-७ संस्कृत्य' सुन्दरं दध्ना शाल्योवनमनुत्तमम् । दत्त्वा तेनेक्षितो ऽन्येयुः पीयूषमिव दुर्लभम् ॥६८ अलब्धपूर्वकं भुक्त्वा मिष्टमाहारमुज्ज्वलम् । प्रहृष्टचेतसावाचि तोमरेण स वाणिजः ॥६९ वणिक्पते त्वया दिव्यं क्वेदृशं लभ्यते ऽशनम् । तेनावाचि ममेदृक्षं कुलदेव्या प्रदीयते ॥७० भणितो म्लेच्छनाथेन सेनासौ वाणिजस्ततः । स्वकीया दीयतां भद्र ममेयं कुलदेवता ॥७१ वणिजोक्तं तदात्मीयां वदामि कुलदेवताम् । ददासि काक्षितं द्रव्यं यदि द्वीपपते मम ॥७२ द्वीपेशेन ततो ऽवाचि मा कार्कभंद्र संशयम् । गृहाण वाञ्छितं द्रव्यं देहि मे कुलदेवताम् ॥७३ मनीषितं ततो द्रव्यं गृहीत्वा वाणिजो गतः । समयं नैचिकों तस्य पोतेनोत्तीर्य सागरम् ॥७४ ६८) १. क एकत्रीकृत्य । ७३) १. द्रव्यम् । तत्पश्चात् किसी दूसरे समयमें उसने अमृतके समान दुर्लभ सुन्दर शाली धानके उत्कृष्ट भातको दहीसे संस्कृत करके उस राजाको दिया और उसका दर्शन किया ॥६८॥ ___ तोमर राजाको इस प्रकारका उज्ज्वल मीठा भोजन पहले कभी नहीं मिला था, इसलिये उसे खाकर उसके मनमें बहुत हर्ष हुआ। तब उसने सागरदत्तसे पूछा कि हे वैश्यराज! तुम्हें इस प्रकारका दिव्य भोजन कहाँसे प्राप्त होता है। इसके उत्तरमें सागरदत्तने कहा कि मुझे ऐसा भोजन कुलदेवी देती है ॥६९-७०॥ । यह सुनकर उस म्लेच्छराज (तोमर ) ने सागरदत्त वैश्यसे कहा कि हे भद्र ! तुम अपनी इस कुलदेवीको मुझे दे दो ॥७१॥ इसपर सागरदत्त बोला कि हे इस द्वीपके स्वामिन् ! यदि तुम मुझे मनचाहा द्रव्य देते हो तो मैं तुम्हें अपनी उस कुलदेवीको दे सकता हूँ, ॥७२॥ वैश्यके इस प्रकार उत्तर देनेपर उक्त द्वीपके स्वामीने कहा कि हे भद्र! तुम जरा भी सन्देह न करो। तुम अपनी इच्छानुसार धन ले लो और उस कुलदेवताको मुझे दे दो ॥७३॥ तदनुसार सागरदत्त वैश्यने तोमरसे इच्छानुसार द्रव्य लेकर उस गायको उसे सौंप दिया। तत्पश्चात् वह जहाजसे समुद्रको पार करके वहाँसे चला गया ।७४॥ ६८) अ संसृत्य....तेनेक्षतो। ६९) ब मृष्टमाहारं । ७१) व इ वणिजः । ७२) अ तवात्मीयं । ७३) अ वित्तं for द्रव्यं । ७४) ब वित्तं for द्रव्यं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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