SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मपरीक्षा-७ अपतत् तत्फलं क्षिप्रं विषतापेन तापितम् । 'अन्यायेनातिरौद्रेण महाकुलमिवाचितम् ॥४२ आनीय वनपालेन क्षितिपालस्य दर्शितम् । 'तत्पक्वं तुष्टचित्तेन सर्वाक्षहरणक्षमम् ॥४३ तन्माकन्दफलं दुष्टं विषाक्तं विकलात्मना। अदायि युवराजस्य राज्ञा दृष्ट्वा मनोरमम् ॥४४ प्रसाद इति भाषित्वा तदादाय नृपात्मजः। चखादासुहरं घोरं कालकूटमिव द्रुतम् ॥४५ स तत्स्वादनमात्रेण बभूव प्राणजितः। जीवितं हरते कस्य दुष्टसेवा न कल्पिता ॥४६ विपन्नं वीक्ष्य राजन्यं राजा चूतमखण्डयत् । उद्यानमण्डनीभूतं कोपानलवितापितः ॥४७ ४२) १. क यथा अन्यायेन महाकुलं पतितम् । ४३) १. आम्रफलम् । २. क सर्वेन्द्रियसुखकरम् । ४४) १. आम्रफलम् । २. आलिप्तम् । ३. क पुत्रस्य । ४५) १. क प्राणहरम् । ४६) १. कृता। ४७) १. क मृतम् । २. क सन् । विषके तापसे सन्तापको प्राप्त होकर वह फल शीघ्र ही इस प्रकारसे पतित हो गयागिर गया-जिस प्रकार कि अतिशय भयानक अन्यायसे प्रतिष्ठित महान् कुल पतित हो जाता है-निन्द्य बन जाता है ॥४२॥ __सब इन्द्रियोंको आकर्षित करनेवाले उस पके हुए फलको मनमें सन्तुष्ट वनपालने लाकर राजाको दिखलाया ॥४३॥ राजाने विकल होते हुए ( शीघ्रतासे ) विषसे व्याप्त उस दूषित मनोहर आमके फलको देखकर युवराजके लिए दे दिया ॥४४॥ तब राजपुत्रने 'यह आपका बड़ा अनुग्रह है' कहते हुए भयानक कालकूट विषके समान प्राणघातक उस फलको लेकर शीघ्र ही खा लिया ॥४५॥ उसके खाते ही वह राजपुत्र प्राणोंसे रहित हो गया-मर गया। ठीक है-की गयी दुष्टकी सेवा (दूषित वस्तुका उपभोग ) भला किसके प्राणोंका अपहरण नहीं करती है ? वह सब ही के प्राणोंका अपहरण किया करती है ॥४६॥ तब राजाने इस प्रकारसे मरणको प्राप्त हुए राजपुत्रको देखकर क्रोधरूप अग्निसे सन्तप्त होते हुए उद्यानकी शोभास्वरूप उस आम्रवृक्षको कटवा डाला ॥४७॥ ४३) अ ब क इ तत्यक्तं। ४४) ब विकल्पविकलात्मना; इ आदायि"राजा। ४५) इ प्रसादमिति । ४७) अ मण्डनं चूतं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy