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________________ १०५ धर्मपरीक्षा-६ इह ददासि पुरे न ममासितुं' यदि तदाहमुपैमि पुरान्तरम् । इति निगद्य स रुष्टमना गतो हतसमस्तविचारमतिद्विजः ।।२३ विनिश्चयो यस्य निरीक्षिते स्वयं । विमूढचित्तस्य न वस्तुनि स्फुटम् । विबोध्यते केन स निविवेचकः कृतान्तमत्यस्य' विमूढमर्दकम् ॥९४ अवगमविकलो ऽमितगतिवचनं धरति न हृदये भवभयमथनम् । इति हृदि सुधियो विदधति विशदं शुभमतिविसरं स्थिरशिवसुखदम् ॥९५ इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायां षष्ठः परिच्छेदः ॥६ ९३) १. क भोजनं कर्तुम् । २. क गच्छामि । ३. क कोपमनाः । ९४) १. विहाय; क त्यक्त्वा। ९५) १. ज्ञानरहितः । २. करोति । ३. वचनम् । यदि तुम मुझे इस नगरमें नहीं रहने देती हो तो मैं दूसरे नगरमें चला जाता हूँ । इस प्रकार कहकर वह समस्त विवेकबुद्धिसे हीन ब्राह्मग मनमें क्रोधित होता हुआ वहाँसे चला गया ॥१३॥ इस प्रकार जिस मूढ़ मनुष्यको वस्तुके स्वयं देख लेनेपर भी स्पष्टतया उसका निश्चय नहीं होता है उस विचारहीन मनुष्यके लिए मूढोंके मर्दन करनेवाले यमराजको छोड़कर दूसरा कौन समझा सकता है ? ॥१४॥ ___ इस प्रकार विवेकज्ञानसे रहित मनुष्य संसारके भयको नष्ट करनेवाले अपरिमित ज्ञानी (सर्वज्ञ अथवा अमितगति आचार्य) के वचनको हृदयमें धारण नहीं करता है। परन्तु जो उत्तम बुद्धिके धारक (विवेकी) हैं वे निर्मल बुद्धिको विस्तृत करके अविनश्वर मोक्षसुखको प्रदान करनेवाले उस निर्मल वचनको हृदयमें धारण किया करते हैं ॥९५।। इस प्रकार अमितगति विरचित धर्मपरीक्षामें __ छठा परिच्छेद समाप्त हुआ ।।६।। ९३) क माशितुं । ९४) ब विनिश्चिते; ब विबोधते, अ इ विबुध्यते; भइ कृतान्तमन्यस्य । ९५) अ व इ निदधति । १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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