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________________ १०० अमितगतिविरचिता संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते कर्मणा जीवराशयः। प्रेरिताः पवमानेने पर्णपुजा इव स्फुटम् ॥६६ संयोगो दुर्लभो भूयो वियुक्तानां शरीरिणाम् । संबध्यन्ते न विश्लिष्टाः कथंचित्परमाणवः ॥६७ रसासृङमांसमेदोस्थिमज्जाशुक्रादिपुञ्जके। कि कान्तं कामिनीकाये संछन्ने सूक्ष्मया त्वचा ॥६८ बहिरन्तरयोरस्ति यदि देवाद्विपर्ययः। आस्तामालिङ्गनं केन वीक्ष्येतापि वपुस्तदा ॥६९ रुधिरप्रस्रवद्वारं दुर्गन्धं मूढ दुर्वचम् । वे!गृहोपमं निन्द्यं स्पृश्यते जघनं कथम् ॥७० ६६) १. क पवमानः प्रभञ्जनेत्यमरः । ६७) १. क वियोगप्राप्तानाम् । २. भिद्यन्ते । ३. कि न। ६८) १. क आच्छादिते। ६९) १. क दूरे तिष्ठतु। ७०) १. गूथ । जिस प्रकार वायुसे प्रेरित होकर पत्तोंके समूह कभी संयोगको और कभी वियोगको प्राप्त होते हैं उसी प्रकार कर्मके वशीभूत होकर जीवोंके समूह भी संयोग और वियोगको प्राप्त होते हैं ॥६६।। वियोगको प्राप्त हुए प्राणियोंका फिरसे संयोग होना दुर्लभ है । ठीक भी है-पृथक्ता को प्राप्त हुए परमाणु फिरसे किसी प्रकार भी सम्बन्धको प्राप्त नहीं होते हैं ॥६७। रस, रुधिर, मांस, मेदा, हड्डी, मज्जा और वीर्यके समूहभूत तथा सूक्ष्म चमड़ेसे आच्छादित स्त्रीके शरीरमें भला रमणीय वस्तु क्या है ? ॥६८।। यदि दैवयोगसे स्त्रीके शरीरके बाहरी और भीतरी भागोंमें विपरीतता हो जायेकदाचित् उस शरीरका भीतरी भाग बाहर आ जाये तो उसका आलिंगन तो दूर रहा, उसे देख भी कौन सकता है ? अर्थात् उसकी ओर कोई देखना भी नहीं चाहता है ॥६९।। हे मूर्ख ! जो स्त्रीका जघन रुधिरके बहनेका द्वार है, दुर्गन्धसे सहित है, वचनसे कहनेमें दुखप्रद है अर्थात् जिसका नाम लेना भी लज्जाजनक है, तथा जो मलके गृह (संडास) के समान होता हुआ निन्द्य है; उसका स्पर्श कैसे किया जाता है ? अर्थात् उसका स्पर्श करना उचित नहीं है ॥७॥ ६७) क संसिध्यन्ते, ड संभिद्यन्ते for संबध्यन्ते । ६८) अ पुंढके; ब कि कान्ते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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