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________________ अमितगतिविरचिता विदधानो' ममादेशं गुर्वाराधनपण्डितः। कथं महामते दग्धो निर्दयेन कृशानुना ॥५३ ब्रह्मचारी शुचिर्दक्षो विनीतः शास्त्रपारगः । दृश्यते त्वादृशो यज्ञ कुलीनो बटुकः कुतः ॥५४ वर्तमाना ममाज्ञायां गृहकृत्यपरायणा । पतिव्रता कथं यज्ञे त्वं दग्या कोमलाग्निना ॥५५ गुणशीलकलाधारा भर्तृभक्ता बृहत्त्रपा। त्वादृशी प्रेयसी कान्ते न कदापि भविष्यति ।।५६ यत्त्वं मदीयवाक्यस्था' विपन्नासि कृशोदरि।। कथं चन्द्रानने शुद्धिः पापस्यास्य भविष्यति ॥५७ पादाभ्यां तन्वि राजीवे जङ्घाभ्यां मदनेषुधी'। ऊरुभ्यां कदलोस्तम्भौ रथाङ्गं जघनश्रिया ॥५८ नाभिलक्ष्म्या जलावर्तमुदरेण पेविश्रियम्। कुचाभ्यां कानको कुम्भौ कण्ठेन जलजश्रियम् ॥५९ ५३) १. क कुर्वाणः। ५७) १. वाक्येन गृहे स्थिता सती । २. मृता । ३. मम । ५८) १. क शरधी । २. क चक्रवाकम् । ५९) १. नीरस्यावर्तम् । २. वज्र। ३. शंख; क कमलशोभाम् । वह सोचने लगा कि उस अग्निने मेरी आज्ञाका पालन करनेवाले और गुरुकी उपासनामें चतुर उस अतिशय बुद्धिमान् बटुकको निर्दयतापूर्वक कैसे जला डाला ? ॥५३॥ जो यज्ञ बटुक ब्रह्मचारी, पवित्र, निपुण, विनयशील तथा शास्त्रमें पारंगत था वैसा वह बटुक अब कहाँसे दिख सकता है ? नहीं दिख सकता है ॥५४॥ हे यज्ञे ! मेरी आज्ञामें रहनेवाली और गृहकार्यमें तत्पर तुझ जैसी पतिव्रता कोमल स्त्रीको अग्निने कैसे जला डाला ? ॥५५॥ हे कान्ते ! गुग, शील एवं कलाओंकी आधारभूत, पतिकी भक्तिमें निरत, और वृद्धिंगत लज्जासे सहित (लज्जालु) तुझ जैसी प्रिया कभी भी नहीं हो सकेगी ॥५६॥ हे कृश उदरसे सहित व चन्द्रके समान मुखवाली प्रिये ! तू जो मेरे कहनेसे घरमें रहकर विपत्तिको प्राप्त हुई है इस मेरे पापकी शुद्धि कैसे होगी ? ॥५७|| हे तन्वि! तू अपने दोनों चरणोंसे कमलोंको, जंघाओंसे कामदेवके भाथा (बाणोंके रखनेका पात्र ) को, जाँघोंसे केलेके खम्भोंको, जघनकी शोभासे रथके पहिये को, नाभिकी ५३) अ महामतिर्दग्धो । ५४) अ ड इ तादृशो; अ क ड इ यज्ञः । ५७) अ कृशोदरे । ५८) ब ड मदनेषुधीः, इषुधिम् । ५९) इ पविच्छविम्; अ ब क कनको । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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