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प्रस्तावना
५. इस निबन्धमें हम उन धर्मपरीक्षाओंकी चर्चा नहीं कर रहे हैं जिनकी हस्तलिखित प्रति या संस्करण हमें अबतक प्राप्त नहीं हो सके हैं। यहां हम केवल हरिषेणकी धर्मपरीक्षाके सम्बन्धमें प्रकाश डालना चाहते हैं । इस ग्रन्थको मुख्य विशेषता यह है कि यह ग्रन्थ अपभ्रंश भाषामें है और अमितगतिको संस्कृत धर्मपरीक्षाके २६ वर्ष पहले इसकी रचना हुई है। वस्तुतः उपलब्ध धर्मपरीक्षा ग्रन्थों में यह सर्वप्रथम रचना है। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थमें जयरामकी एक प्राकृत धर्मपरीक्षाका उल्लेख आता है जो इसके पहले की है और जो अबतक प्रकाशमें नहीं आ सकी है ।
हरिषेणकृत धर्मपरीक्षा
१. पूनाके भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट में हरिषेणकृत धर्मपरीक्षाकी दो हस्तलिखित प्रतियां (नं. ६१७, १८७५-७६ को और १००९, १८८७-९१ की ) विद्यमान है । यद्यपि १००९ को प्रतिपर तिथि नहीं है, किन्तु कागज और लिखावट की दृष्टिसे यह दूसरीको अपेक्षा आधुनिक प्रतीत होती है। यह प्रति खूब सुरक्षित है, किन्तु इसके ५६ ए., ५७,६९,६९ ए. पन्नोंमें कुछ नहीं लिखा है । और पुस्तकको मूल सामग्रीमें-से कुछ स्थल छूट गया है। नं. ६१७ वाली प्रति आकार-प्रकार में इसकी अपेक्षा पुरानी है। इसकी कोरें फटी हैं, कागज पुराना है और कहीं-कहीं पदि मात्राओंका उपयोग किया गया है। इसमें सं. १५६५ लिखा है और किसी दूसरेके हाथका अपूर्ण रिमार्क भी है जो इस बातको सूचित करता है कि यह प्रति १५३८ से भी प्राचीन है । इसका १३७वां पृष्ठ कुछ त्रुटित है और चौथा पृष्ठ गायब है । दोनों प्रतियोंके मिलानेसे सम्पूर्ण ग्रन्थ तैयार हो जाता है और प्रथम सन्धिकी सूक्ष्म तुलनासे प्रतीत होता है, दोनों ही प्रतियां सर्वथा स्वतन्त्र है-एक दूसरेको प्रतिलिपि नहीं।
२. यह ग्रन्थ ११ सन्धियोंमें विभक्त है और प्रत्येक सन्धिमें १७ से लेकर २७ कडवक है। इस तरह भिन्न-भिन्न सर्गोमें कडवकोंकी संख्या निम्न प्रकार है
१ = २०, २% २४, ३ = २२, ४ = २४, ५-३०, ६=१९, ७ = १८, ८-२२, ९-२५, १०% १७, ११ = २७ । इस तरह कुल मिलाकर २३८ कड़वक हैं। इनकी रचना भिन्न-भिन्न अपभ्रंश छन्दों में है, जिनमें से कुछ तो खास तौरसे इस ग्रन्थमें रखे गये हैं। कुल पद्य-संख्या. जैसी कि हस्तलिखित प्रतिमें लिखी है, २०७० होती है । सन्धियोंके उपसंहार या पुष्पिकामें लिखा है कि यह धर्मपरीक्षा-धर्म, अर्थ, काम, मोक्षस्वरूप चार पुरुषार्थों के निरूपणके लिए बुध हरिषेणने बनायी है । उदाहरणके लिए ग्रन्थको समाप्तिके समयकी सन्धि-पुष्पिका इस प्रकार है
इय धम्म परिक्खाए चउ वग्गाहिट्रियाए
बुह हरिषेण-कयाए एयारसमो संधि सम्मत्तो। ३. हरिषेणने अन्य अपभ्रंश कवियोंकी तरह कड़बकोंके आदि और अन्त में अपने सम्बन्धमें बहुत-सी बातोंका निर्देश किया है। उन्होंने लिखा है कि मेवाड़ देशमें विविध कलाओंमें पारंगत एक हरि नामके महानुभाव थे। यह सिरि-उज उर (सिरि ओजपुर ) के धक्कड़ कुल के वंशज थे। इनके एक धर्मात्मा पुत्र था, जिसका नाम गोवड्ढण ( गोवर्धन ) था। उसकी पत्नीका नाम गुणवती था, जो जैनधर्ममें प्रगाढ़ श्रद्धा रखती थी। उसके हरिषेण नामका एक पुत्र हुआ जो विद्वान् कविके रूपमें विख्यात हुआ। उसने अपने किसी कार्यवश ( णियकज्जे ) चित्तउडु ( चित्रकूट ) छोड़ दिया और वह अचलपुर चला आया। वहां उसने छन्द और अलंकार शास्त्रका अध्ययन किया और प्रस्तुत धर्मपरीक्षाकी रचना की। प्रासंगिक पंक्तियां नीचे उद्धृत की जाती हैं
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