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________________ प्रस्तावना पुराणकी रचना प्रारम्भ की होगी । जयधवलाको बीचमें ही अधूरी छोड़कर स्वामी वीरसेनके स्वर्ग चले जानेके पश्चात् स्वामी जिनसेनको आदिपुराणको अधूरा ही छोड़कर उसमें अपना समय लगाना पड़ा होगा। क्योंकि उस समय उनकी अवस्था भी ६५ वर्षके लगभग रही होगी। अतः वृद्धावस्थाके कारण अपने आदिपुराणको समाप्त करके जयधवलाका कार्य पूरा करनेकी अपेक्षा उन्हें यह अधिक आवश्यक जान पड़ा होगा कि गुरुके अधूरे कामको पहले पूर्ण किया जाय । अतः उन्होंने जयधवलाका कार्य हाथमें लेकर श० सं० ७५९ में उसे पूरा किया । उसके पश्चात् उनका स्वर्गवास हो जानेके कारण आदिपुराण अधूरा रह गया और उसे उनके शिष्य गुणभद्राचार्यने पूरा किया। इसप्रकार श० सं० ७०० से ७६० तक स्वामी जिनसेनका कार्यकाल समझना चाहिये । इन दोनों गुरु शिष्योंने जिन शासनकी जो महती सेवाकी है जैनवाङमयके इतिहासमें वह सदा अमर रहेगी। ३ विषयपरिचय ___ इस स्तम्भमें प्रथम ही साधारणतया कषायपाहुडका अधिकारोंके अनुसार सामान्य परिचय दिया जायगा । तदनन्तर इस प्रथम अधिकारमें आए हुए कुछ खास विषयांपर ऐतिहासिक और तात्त्विकदृष्टिसे विवेचन किया जायगा। इस विवेचनका मुख्य उद्देश्य यही है कि पाठकोंको उस विषयकी यथासंभव अधिक जानकारी मिल सके। १. कर्म और कषाय भारतमें आस्तिकताकी कसौटी इस जीवनकी कड़ीको परलोकके जीवनसे जोड़ देना है। जो मत इस जीवनका अतीत और भाविजीवनसे सम्बन्ध स्थापित कर सके हैं वे ही प्राचीन समयमें इस भारतभूमिपर प्रतिष्ठित रह सके हैं। यही कारण है कि चार्वाकमत आत्यन्तिक तर्कबलपर प्रतिष्ठित होकर भी आदरका पात्र नहीं हो सका । बौद्ध और जैनदर्शनोंने वेद तथा वैदिक क्रियाकाण्डोंका तात्त्विक एवं क्रियात्मक विरोध करके भी परलोकके जीवनसे इस जीवनका अनुस्यूत स्रोत कायम रखनेके कारण लोकप्रियता प्राप्त की थी। वे तो यहाँ तक लोकसंग्रही हुए कि एक समय वैदिक क्रियाकाण्डकी जड़ें ही हिल उठी थीं। इस जीवनका पूर्वापर जीवनोंसे सम्बन्ध स्थापित करनेके लिये एक माध्यमकी आवश्यकता है। आजके किए गए अच्छे या बुरे कार्योंका कालान्तरमें फल देना बिना माध्यमके नहीं बन सकता। इसी माध्यमको भारतीय दर्शनों में कर्म, अदृष्ट, अपूर्व, वासना, दैव, योग्यता आदि नाम दिए हैं। कर्मकी सिद्धि का सबसे बड़ा प्रमाण यही दिया जाता है कि-यदि कर्म न माना जाय तो जगत्में एक सुखी, एक दुःखी, एकको अनायास लाभ, दूसरेको लाख प्रयत्न करनेपर भी घाटा ही घाटा इत्यादि विचित्रता क्योंकर होती है ? साध्वी स्त्रीके जुड़वा दो लड़कोंमें शक्ति ज्ञान आदिकी विभिन्नता क्यों होती है ? उनमें क्यों एक शराबी बनता है और दूसरा योगी ? दृष्ट कारणांकी समानता होने पर एककी कार्यसिद्धि होना तथा दूसरेको लाभकी तो बात क्या मूलका भी साफ हो जाना यह दृष्ट कारणांकी विफलता किसी अदृष्ट कारणकी ओर सङ्केत करती है। आज किसीने यज्ञ किया या दान दिया या कोई निषिद्ध कार्य किया, पर ये सब क्रियाएं तो यहीं नष्ट हो जाती हैं परलोक तक जाती नहीं हैं। अब यदि कर्म न माना जाय तो इनका अच्छा या बुरा फल कैसे मिलेगा ? इस तरह भारतीय आस्तिक परम्परामें इसी कर्मवादके ऊपर धर्मका सुदृढ़ प्रासाद खड़ा हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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