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________________ जयधवलासहित कषायप्राभृत प्रशिष्यश्चन्द्रसेनस्य यः शिष्योऽप्यायनन्दिनाम् । कूलं गणं च सन्तानं स्वगणरुदजिज्वलत् ॥२६॥ तस्य शिष्योऽभवच्छीमान् जिनसेनः समिद्धधीः । अविद्धावपि यत्कौँ विद्धौ ज्ञानशलाकया ॥२७॥ यस्मिन्नासन्नभव्यत्वान्मुक्तिलक्ष्मीः समुत्सुका । स्वयं वरीतुकामेव श्रौति मालामयूयुजत् ॥२८॥ येनानुचरिता (तं) बाल्याब्रह्मवतमखण्डितम् । स्वयंवर विधानेन चित्रमूढ़ा सरस्वती ॥२९॥ यो नातिसुन्दराकारो न चातिचतुरो मुनिः। तथाप्यनन्यशरणा यं सरस्वत्युपाचरत् ॥३०॥ धीः शमो विनयश्चेति यस्य नैसगिकाः गुणाः । सूरीनाराधयंति स्म गुणैराराध्यते न कः ॥३१॥ यः कृशोऽपि शरीरेण न कृशोऽभूत्तपोगुणैः । न कृशत्वं हि शारीरं गुणैरेव कृशः कृशः ॥३२॥ ये (यो) नाग्रहीत्कपिलिका नाप्यचिन्तयदञ्जसा । तथाप्यध्यात्मविद्याब्धेः परं पारमशिधियत् ॥३३॥ ज्ञानाराधनया यस्य गतः कालो निरन्तरम् । ततो ज्ञानमयं पिण्डं यमाहस्तत्त्वदर्शिनः ॥३४॥ तेनेदमनतिप्रौढमतिना गुरुशासनात् । लिखितं विशदैरेभिरक्षरैः पुण्यशासनम् ॥३५॥ गुरुणार्धेऽग्रिमे भूरिवक्तव्ये संप्रकाशिते । तन्निरीक्ष्याल्पवक्तव्यः पश्चार्धस्तेन पूरितः ॥३६॥" इस प्रशस्तिके पूर्वार्धमें आचार्य वीरसेनके गुणांका वर्णन किया गया है और उत्तरार्धमें उनके शिष्य आचार्य जिनसेनका। इसमें सन्देह नहीं कि प्राचार्य वीरसेन अपने समयके एक बहुत बड़े विद्वान थे। उन्होंने अपनी दोनों टीकाओंमें जिन विविध विषयोंका संकलन आचार्य तथा निरूपण किया है उन्हें देखकर यदि उस समयके भी विद्वानोंकी सर्वज्ञके सद्भाव वीरसेन विषयक शङ्का दूर हो गई थी तो उसमें अचरज नहीं है, क्योंकि इस समय भी उसे और पढ़कर विद्वानोंको यह अचरज हुए बिना नहीं रहता कि एक व्यक्तिको कितने विषयांका जिनसेन कितना अधिक ज्ञान था। इसके साथ ही साथ वे दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोंके रहस्यके अपूर्व वेत्ता थे तथा प्रथम सिद्धान्थ ग्रन्थ षट्खण्डागमके छहों खण्डोंमें तो उनकी भारती भारती आज्ञाके समान अस्खलितगति थी। सम्भवतः वे प्रथम चक्रवर्ती भरतके ही समान प्रथम सिद्धान्तचक्रवर्ती थे। उनके बादसे ही सिद्धान्तग्रन्थोंके ज्ञाताओंको यह पद दिया जाने लगा था। उनके आगमविषयक ज्ञान और बुद्धिचातुरीको देखकर विद्वान उन्हें श्रतकेवली और प्रज्ञाश्रमणोंमें श्रेष्ठ तक कहते थे। ग्यारह अंग और चौदह पूर्वका पाठी न होने पर भी श्रुतावरण और वीर्यान्तरायके प्रकृष्ट क्षयोपशमसे जो असाधारण प्रज्ञाशक्ति प्राप्त हो जाती है जिसके कारण द्वादशांगके विषयांका निःसंशय कथन किया जा सकता है उसे प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि कहते हैं। और उसके धारक मुनि प्रज्ञाश्रमण कहलाते हैं। श्री वीरसेनस्वामीकी इस प्रज्ञाशक्तिके दर्शन उनकी टीकाओंमें पद पद पर होते हैं। प्रशस्तिकारके इन उल्लेखोंसे पता चलता है कि अपने समयमें ही वे किस कोटिके ज्ञानी और संयमी समझे जाते थे। वे प्राचीन पुस्तकोंके पढ़नेके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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