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________________ प्रस्तावना ४७ यतिवृषभकी वीतरागता और उनके वचनोंकी भगवान महावीरकी दिव्यध्वनिके साथ एकरसता बतलानेसे यह स्पष्ट है कि प्राचार्यपरम्परामें यतिवृषभके व्यक्तित्वके प्रति कितना समादर था और उनका स्थान कितना महान और प्रतिष्ठिन था। इन यतिवृषभने अपनी त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें भगवान महावीरके निर्वाणके पश्चात्की प्राचार्यपरम्परा और उसकी कालगणना इस प्रकार दी है "जादो सिद्धो वीरो तद्दिवसे गोदमो परमणाणी। जादे तस्सि सिद्ध सुधम्मसामी तदो जादो ॥६६॥ तम्मि कदकम्मणासे जंबूसामि त्ति केवली जादो। तत्थ वि सिद्धिपवण्णे केवलिणो णत्थि अणबद्धा ॥६७॥ वासही वासाणि गोदमपहुदीण णाणवंताणं । धम्मपयट्टणकालो परिमाणं पिंडरूवेण ॥६८॥" अर्थ-जिस दिन श्री वीर भगवानका मोक्ष हुआ उसी दिन गौतम गणधर केवलज्ञानी हुए। उनके सिद्ध होनेपर सुधर्मास्वामी केवली हुए। सुधर्मास्वामीके कृतकर्मों का नाश कर चुकनेपर जम्बूस्वामी केवली हुए। उनके सिद्धि प्राप्त कर लेनेपर कोई केवली नहीं हुआ। इन गौतम आदि केवलियोंके धर्मप्रवर्तनके कालका परिमाण पिण्डरूपसे ६२ वर्ष है ॥६६-६८।। "गंदी य णंदिमित्तो विदिओ अवराजिदो तई जाया (तईओ य)। गोवद्धणो चउत्थो पंचमओ भद्दबाहु त्ति ॥७२॥ पंच इमे पुरिसवरा चउवसपुव्वी जगम्मि विक्खावा । ते बारसग्रंगधरा तित्थे सिरिवड्ढमाणस्स ॥७३॥ पंचाण मेलिदाणं कालपमाणं हवेदि वाससदं । वारिम्मि य पंचमए भरहे सुदकेवली पत्थि ॥७४॥" अर्थ-नन्दि, दूसरे नन्दिमित्र, तीसरे अपराजित, चौथे गोवर्धन और पाँचवे भद्रबाह, ये पांच पुरुषश्रेष्ठ श्रीवर्द्धमान स्वामीके तीर्थमें जगतमें प्रसिद्ध चतुर्दशपूर्वधारी हुए। ये द्वादशांगके ज्ञाता थे। इन पाँचोंका काल मिलाकर एकसौ वर्ष होता है। इनके बाद भरतक्षेत्रमें इस पंचमकालमें और कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ ॥७२-७४॥ "पढमो विसाहणामो पुठिल्लो खत्तिनो जओ णागो। सिद्धत्यो धिदिसेणो विजो बुद्धिल्लगंगदेवा य ॥७५॥ एक्करसो य सुधम्मो दसपुब्वधरा इमे सुविक्खादा । पारंपरिउवगमदो तेसीदिसदं च ताण वासाणि ॥७६॥ सव्वेसु वि कालवसा तेसु अदीदेसु भरहखेतम्मि। वियसंतभव्वकमला ण संति दसपुविदिवसयरा ॥७७॥" अर्थ-विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और सुधर्म ये ग्यारह आचार्य एकके बाद एक क्रमसे दसपूर्वके धारी विख्यात हुए। इनका काल १८३ वर्ष है। कालवशसे इन सबके अतीत हो जानेपर भरतक्षेत्रमें भव्यरूपी कमलोंको प्रफुल्लितकरनेवाले दसपूर्वके धारक सूर्य नहीं हुए ॥७५-७७ ॥ "णक्खत्तो जयपालो पंडुअ-धुवसेण-कंस आइरिया। एक्कारसंगधारी पंच इमे वीरतित्थम्मि ॥७८॥ दोणिसया वीसजदा वासाणं ताण पिडपरिमाणं । तेस अतीदे णत्थि हु भरहे एक्कारसंगधरा ॥७९॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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