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________________ ४२ जयधवलासहित कषायप्राभृत । श्री वीरसेन स्वामीके उक्त विवरणसे यह स्पष्ट है कि भगवान महावीरके निर्वाणलाभ करनेके पश्चात् ६८३ वर्ष तक अंगज्ञानकी प्रवृत्ति रही। उसके बाद गुणधर भट्टारक हुए । उन्हें आचार्य परम्परासे अंग और पूर्वो का एक देश प्राप्त हुआ। ग्रन्थविच्छेदके भयसे उन्होंने ज्ञानप्रवाद पूर्वके तीसरे वस्तु अधिकारके अन्तर्गत कसायपाहुडको संक्षिप्त करके उसे १८० गाथाओंमें निबद्ध किया। श्री वीरसेन स्वामीके पश्चातके आचार्य इन्द्रनन्दिने भी अपने श्रुतावतारमें कषायप्राभृतकी उत्पत्तिका विवरण दिया है। प्रारम्भमें उन्होने भी महावीरके पश्चात् होने वाले अंगज्ञानके धारक प्राचार्योंकी परम्परा देकर ६८३ वर्ष तक अंगज्ञानकी प्रवृत्ति बतलाई है। उसके बाद कल आचार्योंका उल्लेख करके उन धरसेन स्वामीका अस्तित्व बतलाया है, जिनसे अध्ययन करके आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिने षटखण्डागमकी रचना की थी। षट्खण्डागमकी रचनाका इतिवृत्त देकर उन्होंनेकषायप्राभृत सूत्रकी उत्पत्तिका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा की है और उसके आगे लिखा है कि ज्ञानप्रवाद नामक पञ्चम पूर्वके दसवें वस्तु अधिकारके अन्तर्गत तीसरे प्राभृतके ज्ञाता गुणधर मुनीन्द्र हुए। ___ यद्यपि इन्द्रनन्दिने यह स्पष्ट नहीं लिखा कि भगवान महावीरके पश्चात् कब गुणधर आचार्य हुए । किन्तु उनके वर्णनसे भी यही प्रकट होता है अंगज्ञानियों की परम्पराके पश्चात ही गुणधराचार्य हुए हैं। कितने काल पश्चात् हुए हैं इसका भी कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता । यदि गुणधराचार्य की गुरुपरम्परा का कुछ पता चल जाता तो उसपरसे भी सहायता मिल सकती थी। किन्तु इन्द्रनन्दि अपने श्रुतावतारमें स्पष्ट लिखते हैं "गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥१५१॥" अर्थात्-गुणधर और धरसेनके गुरुवंशका पूर्वापरक्रम हम नहीं जानते हैं; क्योंकि उनके अन्वयके कहने वाले आगम और मुनिजनोंका अभाव है। श्रीयुत पं० नाथूराम जी प्रेमीका अनुमान है कि श्रुतावतारके कर्ता वे ही इन्द्रनन्दि हैं जिनका उल्लेख आचार्य नेमिचन्द्रने गोम्मटसार कर्मकाण्ड की ३६६ वी गाथामें गुरुरूपसे किया है। उनके इस अनुमानका आधार क्या है ? यह तो उन्होंने नहीं बतलाया। सम्भवतः श्रुतावतारका यथासम्भव जो प्रामाणिक वर्णन इन्द्रनन्दिने दिया है जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण उक्त श्लोक है उसीके आधारपर प्रेमी जीने उक्त अनुमान किया हो। अस्तु, जो कुछ हो, किन्तु यह निश्चित है कि धवला और जयधवलाके रचयिता श्री वीरसेनस्वामी भी धरसेन और गुणधर आचार्य की गुरुपरम्परासे अपरिचित थे। सम्भवतः उनके समयमें भी इन दोनों आचार्योंकी गुरुपरम्पराको कहने वाला कोई आगम या मुनिजन नहीं थे। अन्यथा वे धवला और जयधवलाके प्रारम्भमें श्रुतावतारका इतिवृत्त लिखते हुए उसे अवश्य निबद्ध करते । अतः जब षटखण्डागम और कषायप्राभृतके आदरणीय टीकाकारने ही उक्त दोनों आचार्योंकी गुरुपरम्पराके बारेमें कुछ भी नहीं लिखा तो उनके पश्चाद्भावी इन्द्रनन्द्रिको यदि यह लिखना पड़े कि हम गुणधर और धरसेनकी गुरुपरम्पराको नहीं जानते हैं तो इसमें अचरज ही क्या है ? जयधवलामें एक स्थानपर गुणधर को वाचक लिखा है। यथा "एतेनाशङ्का द्योतिता आत्मीया गणधरवाचकेन ।" (१) तत्त्वानु० श्रुताव० गा० १९४-१५०। (२) तत्त्वान की प्रस्ता०। (३) पृ० ३६५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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