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और
२ ग्रन्थकार परिचय १-२. कसायपाहुड और चूर्णिसूत्रोंके कर्ता श्री वीरसेनस्वामीने अपनी जयधवला टीकाके प्रारम्भमें मंगलाचरण करते हुए गुधधर श्राचार्य भट्टारक, आर्यमंक्षु, नागहस्ति और यतिवृषभ नामक आचार्योंका निम्न शब्दोंमें गुणधर स्मरण किया है
"जेणिह कसायपाहुडमणेयणयमुज्जलं अणंतत्थं । यतिवृषभ
गाहाहि विवरियं तं गुणहरभडारयं वंदे ॥६॥ गुणहरवयणविणिग्गयगाहाणत्थोवहारिनो सम्वो। नेणज्जमखुणा सो स णागहत्थी वरं देऊ ॥७॥ जो अज्जमखुसीसो अंतेवासी वि णागहत्थिस्स।
सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ।। ८॥" अर्थात्-"जिन्होंने इस आर्यावर्तमें अनेक नयोंसे युक्त, उज्ज्वल और अनन्त पदार्थोंसे व्याप्त कषायप्राभृतका गाथाओं द्वारा व्याख्यान किया उन गुणधर भट्टारकको मैं वीरसेन आचार्य नमस्कार करता हूँ॥६॥
जिन आर्यमंतु आचार्यने गुणधर आचार्यके मुखसे प्रकट हुई गाथाओंके समस्त अर्थका अवधारण किया, नागहस्ती आचार्यसहित वे आर्यमंक्षु आचार्य मुझे वर प्रदान करें॥७॥
जो आर्यमंतु आचार्यके शिष्य हैं और नागहस्ती आचार्यके अन्तेवासी हैं, वृत्तिसूत्रके कर्ता वे यतिवृषभ आचार्य मुझे वर प्रदान करें ॥८॥"
उक्त गाथाओंसे स्पष्ट है कि कषायप्राभृतके रचयिता आचार्य गुणधर हैं, उन्होने गाथासूत्रोंमें कषायप्राभृतको निबद्ध किया था। उन गाथासूत्रों के समस्त अर्थके जानने वाले आर्यमंतु
और नागहस्ती नामके आचार्य थे। उनसे अध्यनन करके यतिवृषभने कषायप्राभृत पर चूर्णिसूत्रोंकी रचना की थी। उक्त कषायप्राभृत और उसपर रचे गये चूर्णिसूत्रों पर ही श्री वीरसेनस्वामीने इस जयधवला नामक सिद्धान्तग्रन्थकी रचना की है, जैसा कि उनके निम्न प्रतिज्ञावाक्यसे स्पष्ट है
“णाणप्पवादामलवसमवत्थुतदियकसायपाहुडुवहिजलणिवहप्पक्खालियमइणाणलोयणकलावपच्चक्खीकयतिहुवणेण तिहुवणपरिपालएण गुणहरभडारएण तिस्थवोच्छेदभयेणुवइट्ठगाहाणं अवगाहिय सयलपाहुङत्थाणं सचुण्णिसुत्ताणं विवरणं कस्सामो।"
अर्थात्-ज्ञानप्रवाद नामक पूर्वकी निर्दोष दसवीं वस्तुके तीसरे कषायप्राभृतरूपी समुद्रके जलसमूहसे धोए गए मतिज्ञानरूपी लोचनोंसे जिन्होंने त्रिभुवनको प्रत्यक्ष कर लिया है और जो तीनों लोकोंके परिपालक हैं, उन गुणधर भट्टारकके द्वारा तीर्थके विच्छेदके भयसे कही गई गाथाओंका, जिनमें कि सम्पूर्ण कषायप्राभृतका अर्थ समाया हुआ है, चूर्णिसूत्रोंके साथ मैं विवरण करता हूँ।
__इस प्रकार कषायप्राभृत और उसपर रचे गये चूर्णिसूत्रोंका व्याख्यान करनेवाले जयधवलाकार श्रीवीरसेन स्वामीके उक्त उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि कषायप्राभृतके रचयिता श्रीगुणधर भट्टारक हैं और चूर्णिसूत्रोंके रचयिता आचार्य यतिवृषभ हैं। जयधवलाकारके पश्चाद्भावी
(१) कसायपा० भा॰ १, पृ. ४ ।
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