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________________ गा० २१ ] पेग्जदोसेसु बारस अणियोगद्दाराणि ४०७ जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तं । अवगदवेदस्स पेज्जदोसविहत्तीए जहण्णेण एगसमओ उकस्सेण छम्मासा । एवं सुहुमसांपराइयाणं पि वत्तव्वं । उवसमसम्मादिट्ठीणं पेज्जदोसविहत्तीए जहण्णेण एगसमओ उक्कस्सेण चउबीस अहोरत्ताणि । एवमंतरं समत्तं । $ ३६२. भावाणुगमेण सव्वत्थ ओदइओ भावो । एवं भावो समत्तो । ६३६३. अप्पाबहुआणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा दोसविहत्तिया, पेज्जविहत्तिया विसेसाहिया । एवं सव्वतिरिक्ख-सव्वमगुस्स-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय-पंचिदियपज्जात्तापज्जात्त-तस-तसपज्जत्तापज्जत्त-पंचकाय-बादर सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-दोवचि०कायजोगि-ओरालिय०ओरालियमिस्स आहार०आहारमिस्स कम्मइय०णqसयवेद-मदिअण्णाण-सुदअण्णाण-मणपज्जव० मिश्रकाययोगी जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। पेज्ज और दोषके विभागकी अपेक्षा अपगतवेदी जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । इसीप्रकार सूक्ष्मसांपरायिक जीवोंके अन्तरका कथन करना चाहिये । पेज और दोषके विभागकी अपेक्षा उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस दिन रात है। विशेषार्थ-यहां नाना जीवोंकी अपेक्षा पेज्जवाले और दोषवाले जीवोंका अन्तरकाल बताया गया है। सान्तर मार्गणाओंको और सकषायी अपगतवेदी जीवोंको छोड़कर शेष मार्गणाओंमें पेज्जवाले और दोषवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं इसलिये उनका अन्तरकाल नहीं पाया जाता । सान्तर मार्गणाओंका जो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल है वही यहां उन उन मार्गणाओंकी अपेक्षा पेज्जवाले और दोषवाले जीवोंका अन्तर काल जानना चाहिये । इसप्रकार अन्तर अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। 8 ३६२. भावानुगमकी अपेक्षा कथन करने पर सर्वत्र पेज्ज और दोषसे भेदको प्राप्त हुए जीवोंमें औदयिक भाव है । इसप्रकार भाव अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। 8 ३९३. अल्पबहुत्व अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघनिर्देशकी अपेक्षा दोषयुक्त जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे पेज्जयुक्त जीव विशेष अधिक हैं। इसीप्रकार सभी तिर्यंच, सभी मनुष्य, सभी एकेन्द्रिय सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रसकायिक, त्रसकायिक पर्याप्त, त्रसकायिक अपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, उन्हीं पांचों स्थावरकायिक जीवोंके बादर और सूक्ष्म तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त, सामान्य और अनुभय ये दो वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, मति अज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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