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________________ गा० २१ ] पेज्जदोसेसु बारस अणियोगद्दाराणि ६३६०. कालाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण पेजदोसविहत्तिया केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा । एवं जाव अणाहारएत्ति वत्तव्वं । णवरि मणुसअपजत्ताणं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। एवं वेउव्वियमिस्स०सासणसम्माइटि-सम्मामिच्छादिहि-उवसमसम्मादिष्टीणं वत्तव्वं । आहार० आहारमिस्स० जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवं अवगद०सुहुमसांपराइयाणं वत्तव्यं । एवं कालो समत्तो। ६३९०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा पेजवाले और दोषवाले जीव कितने कालतक पाये जाते हैं ? सर्व कालमें पाये जाते हैं। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि पेज और दोषकी अपेक्षा मनुष्य अपर्याप्तकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके कालका कथन करना चाहिये । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंका पेज्ज और दोषकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायिक संयतोंके कालका कथन करना चाहिये । विशेषार्थ-इस अनुयोगद्वारमें नाना जीवोंकी अपेक्षा पेज्ज और दोषविभक्तिवाले जीवोंके कालका विचार किया गया है। सामान्यरूपसे पेज्ज और दोषसे युक्त जीव सर्वदा ही पाये जाते हैं इसलिये इनका ऊपर सर्व काल कहा है। तथा सान्तरमार्गणाओं और सकषायी अपगतवेदी जीवोंको छोड़ कर सकषायी शेष मार्गणावाले जीव भी सर्वदा पाये जाते हैं इसलिये इनका काल भी ओघके समान है। शेष रहीं सान्तर मार्गणाओंमें स्थित जीवोंके काल में और सकषायी अपगतवेदी जीवोंके कालमें विशेषता है, इसलिये उसे विशेषरूपसे अलग बताया है। जिनके पेज्ज या दोषमें एक समय शेष रह गया है ऐसे नाना जीव मर कर लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें उत्पन्न हुए और वहां वे एक समय तक पेज्ज या दोषके साथ रहे, द्वितीय समयमें उनके पेज्ज और दोषरूप कषाय बदल गई। ऐसे लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके पेज्ज और दोषका जघन्य काल एक समय बन जाता है। अथवा जो लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य पेज्ज और दोषके साथ एक समय तक रहे और द्वितीय समयमें मर कर अन्य गतिको प्राप्त हो जाते हैं उनके भी पेज्ज और दोषका जघन्य काल एक समय बन जाता है। इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें भी एक समयसम्बन्धी कालकी प्ररूपणा कर लेना चाहिये। जिनके पेज्ज और दोषके कालमें एक समय शेष है ऐसे बहुतसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त होते हैं तब सासादनम्यग्दृष्टियोंके पेज्ज और दोषका जघन्य काल एक समय बन जाता है। या सासादनके जघन्य काल एक समयकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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