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जयधवलासहित कषायप्राभृत अर्थात्-“सम्यक्त्वचूणामणि आदि सार्थक उपाधियोंसे विभूषित चामुण्डरायके प्रश्नके अनुसार जयधवलानामक द्वितीय सिद्धान्तग्रन्थ कषायप्राभृतके पन्द्रह महाअधिकारोंमेंसे पश्चिमस्कन्ध नामक पन्द्रहवें अधिकारके अर्थका संग्रह करके श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती लब्धिसार नामक शास्त्रको प्रारम्भ करते हैं।
इससे प्रकट है कि श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने जैसे प्रथम सिद्धान्त ग्रन्थका सार लेकर गोमट्टसारको रचा वैसे ही द्वितीय सिद्धान्तग्रन्थ और उसकी जयधवलाटीकाका सार लेकर उन्होंने लब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थको रचना की। लब्धिसार और क्षपणासारके अवलोकनसे भी इस बातका समर्थन होता है। किन्तु ऐसा मालूम होता है कि टीकाकारको सिद्धान्त ग्रन्थोंके अवलोकनका सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका था क्योंकि यद्यपि यह ठीक है कि कषायप्राभृतमें पन्द्रह अधिकार है किन्तु पन्द्रहवाँ अधिकार चारित्रमोहकी क्षपणा नामका है, उसके पश्चात् पश्चिमस्कन्धको सकल श्रुतस्कन्धकी चूलिका मानकर अन्तमें उसका कथन किया गया है। तथा लब्धिसार और क्षपणासारकी रचना केवल इस अधिकारके आधारपर ही नहीं हुई है, क्योंकि पश्चिमस्कन्धमें तो केवल अघातिया कर्मोंके क्षपणका विधान है जब कि लब्धिसार-क्षपणासारमें दर्शनमोह और चारित्रमोहकी उपशमना और क्षपणाका भी विस्तृत कथन है। लब्धिसारमें तो केवल चारित्रमोहकी उपशमना तकका ही निरूपण है और क्षपणाका निरूपण क्षपणासारमें है। अतः इन ग्रन्थोंकी रचना मुख्यतया दर्शनमोहकी उपशमना, क्षपणा तथा चारित्र मोहकी उपशमना और क्षपणा नामक अधिकारोंके आधारपर की गई है इन अधिकारोंकी अनेक मूल गाथाएं लब्धिसार-क्षपणासारमें ज्यों की त्यों सम्मिलित कर ली गई हैं। जैसे धवला और जयधवला टोकाने प्रथम और द्वितीय सिद्धान्त ग्रन्थोंका स्थान लेकर मूलको अपने में छिपा लिया और प्रथम सिद्धान्त ग्रन्थ धवल, दूसरा सिद्धान्तग्रन्थ जयधवल और महाबंध महाधवल कहा जाने लगा। वैसे ही इन सिद्धान्त ग्रन्थोंका सार लेकर रचे गये कर्मकाण्ड, लब्धिसार-क्षपणासारने भी अपने उद्गम स्थानको जनताके हृदयसे विस्मृतसा करा दिया। अच्छी रचनाओंकी यही तो कसौटी है। यथार्थमें सिद्धान्त ग्रन्थोंको जैसा टीकाकार प्राप्त हुआ वैसा ही टीकाकारको संग्रहकार भी मिल गया। इसे जिनवाणीका सौभाग्य कहा जाये या उसके पाठकों का ?
श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीरचित क्षपणासारकी भाषाटोकामें गाथा नं० ३९२ का जयधवला अर्थ करते हुए स्वर्गीय पं० टोडरमलजीने कुछ गाथाएँ इस प्रकार उद्धृत की हैं
"कसायखवणो ठाणे परिणामो केरिसो हवे।। कसाय उवजोगो को लेस्मा वेदा य को हवे ॥१॥ काणि वा पुत्ववद्धाणि को वा भंसेण वंधदि । कदियावलि पविसंति कदिण्हं वा पवेसगो ॥२॥ केठिय सेझीयदे पुध्वं बंधेण उदयेण वा। अंतरं वा कहिं किच्चा के के संकामगो कहिं ॥३॥ केदाठिदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा ।
उक्कठिदूण सेसाणि कं ठाणं पडिवज्जदि ॥४॥" ये गाथाएं कषायप्राभृतके सम्यक्त्व अनुयोगद्वारकी हैं और उसमें इसी क्रमसे पाई जाती है। संभवतः लिपिकारोंके प्रमादसे कुछ पाठभेद होगया है जो अशुद्ध भी है। कषायप्राभृतमें ये निम्न रूपसे हैं
और
क्षपणासार
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