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________________ गा० २१ ] पेज्जदोसेसु बारस प्रणिश्रोगद्दाराणि ३८७ मचक्खुदंसणि-भवसिद्धिय अभवसिद्धियाणं । एवंदियादिसु अचक्खुदंसणीसु कोहमाणद्वाणमेगसमयावसेसे चक्खुदंसणीसु उववण्णेसु एगसमओ किण्ण लब्भदे ! ण; अचखुदंसणस छदुमत्थे सव्वद्धमणपायादो । * एवं पेजमणुगंतव्वं । वस्तुकी सिद्धि करने पर कहीं भी विरोध नहीं आता है । इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी, भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक जीवोंके भी दोष अन्तर्मुहूर्तकाल तक समझना चाहिये । विशेषार्थ-चूर्णिसूत्रकारने पेज्ज और दोषका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है और जीवट्ठाण में कालानुयोगद्वार में कषायका काल बतलाते समय जघन्यकाल एक समय भी कहा है यही इन दोनों उपदेशों में मतभेद है । इसका समाधान वीरसेनस्वामीने दो प्रकार से किया है । एक तो वीरसेनस्वामीने यह बतलाया है ये दोनों उपदेश भिन्न दो आचार्योंके हैं, इसलिये इनमें परस्पर विरोध न मानकर मान्यताभेद मानना चाहिये । इसका यह अभिप्राय है कि मरण और व्याघात के बिना प्रत्येक कषाय अन्तर्मुहूर्त कालतक रहती है यह बात तो दोनों आचार्यों को सम्मत है । पर मरण और व्याघात के होने पर कषायका काल एक समय भी है यह जीवद्वाणकारको मान्य है यतिवृषभ आचार्यको नहीं । इनके मतसे मरण और व्याघातके होने पर चालू कषाय में उसके कालतक बाधा नहीं पड़ती। और इसीलिये उन्हें देवगति आदिके पहले समय में लोभ आदिका ही उदय होता है यह नियम भी मान्य नहीं है । इनके मत से जब विवक्षित कषायका काल पूरा हो जाता है तभी वह कषाय बदलती है । दूसरे उत्तर द्वारा वीरसेनस्वामीने दोनों उपदेशों का समन्वय किया है । वीरसेनस्वामीका कहना है कि व्याघात आदिसे जो कषायका जघन्य काल एक समय देखा जाता है उसकी विवक्षा न करके कषायके काल सम्बन्धी इस चूर्णिसूत्रकी प्रवृत्ति हुई है । गुणधर भट्टारकने अद्धापरिमाणका निर्देश करते समय दर्शनोपयोग आदिके जघन्य काल कहे हैं बे व्याघातसे रहित अवस्थाकी अपेक्षा से ही कहे हैं । इससे मालूम होता है कि गुणधर भट्टारकको व्याघातके होने पर उन दर्शनोपयोग आदिके जघन्य काल वहां बतलाये हुए जघन्य कालसे कम भी इष्ट है । इन स्थानोंमें क्रोधादिके जघन्य काल भी सम्मिलित हैं। बहुत कुछ संभव है कि इस चूर्णिसूत्रकी प्रवृत्ति उसीके अनुसार हुई हो । यदि ऐसा हो तो यह मान्यता भेद न होकर विवक्षा भेदसे कथन भेद ही समझना चाहिये । शंका - क्रोध और मानका काल एकसमय मात्र शेष रहने पर चक्षुदर्शनवाले जीव जब एकेन्द्रियादि अचक्षुदर्शनियों में उत्पन्न होते हैं तो उस समय अचक्षुदर्शनियोंके क्रोध और मानका काल एक समय प्रमाण क्यों नहीं प्राप्त होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि अचक्षुदर्शनका छद्मस्थोंके कभी भी विनाश नहीं होता है । * इसीप्रकार पेज्जके विषय में समझना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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