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________________ ३७६ जयधवलासहिदे कसायपाहु. [ पेजदोसविहत्ती ? * णेगमस्स असंगहियस्स वत्तव्वएण बारस अणिओगद्दाराणि पेज्जेहि दोसेहि। ___३५३. णेगमो दुविहो संगहिओ असंगहिओ चेदि । तत्थ असंगहियणेगमस्स वत्तव्वएण वाचिएण बारस अणियोगद्दाराणि होति, अण्णेसिं पुण णयाणं वत्तव्वएण पण्णारस होंति बहुवा थोवा वा, तत्थ णियमाभावादो। अहवा, णेगमस्स असंगहियस्स वत्तव्वएण जाणि पेजदोसाणि समपविभत्तकसायचउक्कविसयाणि, तेहि बारस अणियोगद्दाराणि वत्तइस्सामो ति सुत्तत्थो । ___६३५४. एसो णेगमो संगहिओ असंगहिओ चेदि जइ दुविहो तो णत्थि णेगमो; विसयाभावादो। ण तस्स संगहो विसओ; संगहणएण पडिगहिदत्तादो । ण विसेसो, ववहारणएण पडिगहिदत्तादो । ण च संगहविसेसेहितो वदिरित्तो विसओ अस्थि, जेण णेगमणयस्स अत्थित्तं होज ? ६ ३५५. एत्थ परिहारो वुच्चदे-संगह-ववहारणयविसएसु अक्कमेण वट्टमाणो णेगमो । ण च एसो संगह-ववहारणएसु णिवददि, भिण्णविसयत्तादो । ण च एगवि * असंग्रहिक नैगमनयकी वक्तव्यतासे पेज और दोषकी अपेक्षा बारह अनुगद्वार होते हैं। ३५३. संग्रहिक और असंग्रहिकके भेदसे नैगमनय दो प्रकारका है। उनमेंसे असंग्रहिक नैगमनयके कथनसे बारह अनुयोगद्वार होते हैं । किन्तु अन्य नयोके कथनसे पन्द्रह भी होते हैं, अधिक भी होते हैं और कम भी होते हैं, क्योंकि अन्य नयोंके कथनसे कितने अनुयोगद्वार होते हैं, इसका कोई नियम नहीं पाया जाता है। अथवा, असंग्रहिक नैगमनयके वक्तव्यसे जो पेज्ज और दोष चारों कषायोंके विषयमें समरूपसे विभक्त हैं अर्थात् क्रोध और मान दोषरूप हैं और माया और लोभ पेज्जरूप हैं, उनकी अपेक्षा बारह अनुयोगद्वारोंको बतलाते हैं, यह उक्त सूत्रका अर्थ है। ३५४. शंका-यह नैगमनय संग्रहिक और असंग्रहिकके भेदसे यदि दो प्रकारका है तो नैगमनय कोई स्वतंत्र नय नहीं रहता है, क्योंकि इसका कोई विषय नहीं पाया जाता है। नैगमका विषय संग्रह है ऐसा नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उसको संग्रहनय ग्रहण कर लेता है। नैगमनयका विषय विशेष भी नहीं हो सकता है, क्योंकि उसे व्यवहारनय ग्रहण कर लेता है। और संग्रह और विशेषसे अतिरिक्त कोई विषय भी नहीं पाया जाता है, जिसको विषय करनेके कारण नैगमनयका अस्तित्व सिद्ध होवे ? ६३५५. समाधान-अब इस शंकाका समाधान कहते हैं-नैगमनय संग्रहनय और व्यवहारनय के विषय में एकसाथ प्रवृत्ति करता है, अतः वह संग्रह और व्यवहारनयमें अन्तर्भूत (१) णेगमसंगहिय-अ०, आ०। णेगमासंगहिय-स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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