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________________ गा० २० श्रद्धापरिमाणणिदेसो सरिसो होदूण विसेसाहियो। ६३१६. केवलणाणकेवलदसणाणमुक्कस्सउवजोगकालो जेण 'अंतोमुहुत्तमेत्तो' ति भणिदो तेण णव्वदे जहा केवलणाण-दसणाणमक्कमेणं उत्ती ण होदि त्ति । अक्कमउत्तीए संतीए तब्भवत्थकेवलणाण-दंसणाणमुवजोगस्स कालेण अंतोमुहुत्तमेत्तेण ण होदव्वं, किंतु देसूणपुव्वकोडिमेत्तेण होदव्वं, गम्भादिअहवस्सेसु अइकतेसु केवलणाणदिवायरस्सुग्गमुवलंभादो । एत्थुवउजंती गाहा केई भणंति जइया जाणइ तइया ण पासइ जिणो त्ति । सुत्तमवलंबमाणा तित्थयरासायणाभीरू ॥१३४॥" ६३२०. एत्थ परिहारो उच्चदे । तं जहा, केवलणाणदंसणावरणाणं किमक्कमेण क्खओ, आहो कमेणेत्ति ? ण ताव कमेण; "खीणकसायचरिमसमए अक्कमेण घाइकम्मतिय होते हुए भी प्रत्येकका श्वासोच्छ्वासके उत्कृष्टकालसे विशेष अधिक है ? ६३१६. शंका-चूंकि केवलज्ञान और केवलदर्शनका उत्कृष्ट उपयोगकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है, इससे जाना जाता है कि केवलज्ञान और केवलदर्शनकी प्रवृत्ति एकसाथ नहीं होती है। यदि केवलज्ञान और केवलदर्शनकी एकसाथ प्रवृत्ति मानी जाती तो तद्भवस्थकेवलीके केवलज्ञान और केवलदर्शनके उपयोगका काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नहीं होना चाहिये किन्तु कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण होना चाहिये, क्योंकि गर्भसे लेकर आठ वर्ष कालके बीत जाने पर केवलज्ञान सूर्यकी उत्पत्ति देखी जाती है ? यहां इस विषयकी उपयुक्त गाथा देते हैं __ "तीर्थङ्करकी आसादनासे डरनेवाले कुछ आचार्य 'जं समयं जाणति नो तं समयं पासति जं समयं पासति नो तं समयं जाणति' इस सूत्रका अवलम्बन लेकर कहते हैं कि जिन भगवान जिस समय जानते हैं उस समय देखते नहीं है ॥१३४॥" ६३२०.समाधान-अब उक्त शंकाका समाधान करते हैं । वह इसप्रकार है-केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणका क्षय एकसाथ होता है या क्रमसे होता है ? इन दोनों कर्मोंका क्षय क्रमसे होता है ऐसा तो कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि ऐसा कहने पर उक्त कथनका "क्षीणकषाय गुणस्थानके अंतिम समयमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय ये तीनों घातिया (१)-ण वुत्ते ण स०। (२) सन्मति० २।४। "केचित् ब्रुवते 'यदा जानाति तदा न पश्यति जिनः' इति । सूत्रम् "केवली णं भंते, इमं रयणप्पभं पुढवि आयारेहिं पमाणेहिं हेऊहिं संठाणेहिं परिवारेहिं जं समयं जाणइ नो तं समयं पासइ । हंता गोयमा, केवली णं, इत्यादिकमवलम्बमाना:‘एते च व्याख्यातारः तीर्थकरासादनाया अभीरवः तीर्थकरमासादयन्तो न बिभ्यतीति यावत् .."-सन्मति० टी० १०६०५। (३) तुलना-"केवली णं भंते, इमं रयणप्पभं पुढवि आगारेहिं हेतूहि उवमाहिं दिळंतेहिं वण्णेहिं संठाणेहि पमाणेहिं पडोयारेहिं जं समयं जाणति तं समयं पासइ ? जं समयं पासइ तं समयं जाणइ ? गोयमा नो तिणठे समठे। से केणद्वेणं भंते, एवं वुच्चति-केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं आगारेहिं जं समयं जाणति नो तं समयं पासति, जं समयं पासति नो तं समयं जाणति . ."-प्रज्ञा० ५० ३० सू० ३१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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