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________________ गा० २० ] श्रद्धापरिमाणणिदेसो ३४६ बोद्धव्वं । एवं पंचमीए गाहाए अत्थो समत्तो। चक्खू सुदं पुधत्तं माणो वाओ तहेव उवसंते । उवसात य अद्धा दुगुणा सेसा हु सविसेसा ॥२०॥ ६३१७. एदिस्से गाहाए अत्थो वुच्चदे । तं जहा, चक्खुणाणोवजोग-सुदणाणोवजोग-पुधत्तवियकवीचार-माण-अवाय-उवसंतकसाय-उवसामयाणमद्धाओ उक्कस्सप्पाबहुगे भण्णमाणे सग-सगपाओग्गपदेसे दुगुणदुगुणा होदूण णिवदंति । अवसेसपदाणं सव्वउक्कस्सअद्धाओ 'सविसेसा हु' विसेसाहिया चेव होऊण अप्पप्पणो हाणे णिवदंति । एदेण छठगाहासुत्तेण उक्कस्सप्पाबहुअं परूविदं । ६३१८. संपहि एदस्स जोजणविहाणं उच्चदे । तं जहा, मोहणीयजहण्णखवणद्धाए उवरि चक्खुदंसणुवजोगस्स उक्कस्सकालो विसेसाहिओ । चक्खुणाणोवजोगस्स उक्करसकालो दुगुणो । दुगुणतं कुदो णव्वदे ? छटगाहासुत्तादो । सोदणाणउक्कस्सकालो हैं ऐसा समझना चाहिये। इसप्रकार पांचवीं गाथाका अर्थ समाप्त हुआ। चनुज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग, पृथक्त्ववितकेवीचार ध्यान, मान, अवायज्ञान, उपशान्तकषाय तथा उपशामक इनका उत्कृष्ट काल अपनेसे पहले स्थानके कालसे दूना होता है । और शेष स्थानोंका उत्कृष्ट काल अपनेसे पहले स्थानके कालसे विशेष अधिक होता है ॥२०॥ ३१७. अब इस गाथाका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है-उत्कृष्ट अल्पबहुत्वके कहनेपर चक्षुज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग, पृथक्त्ववितर्कवीचारध्यान, मान, अवाय, उपशान्तकषाय और उपशामक, इनके उत्कृष्ट काल, अपने अपने योग्य स्थानमें दूने दूने होकर प्राप्त होते हैं। और शेष स्थानोंके समस्त उत्कृष्ट काल सविशेष अर्थात् विशेष अधिक होकर ही अपने अपने स्थानों में प्राप्त होते हैं। इसप्रकार इस छठवीं गाथासूत्रके द्वारा उत्कृष्ट अल्पबहुत्व कहा है। ६३१८. अब इस उत्कृष्ट अल्पबहुत्वकी योजना करनेकी विधिको कहते हैं। वह इसप्रकार है-चारित्रमोहनीयके जघन्य क्षपणाकालके ऊपर चक्षुदर्शनोपयोगका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इससे चक्षुज्ञानोपयोगका उत्कृष्ट काल दूना है। शंका-चक्षुदर्शनोपयोगके उत्कृष्ट कालसे चक्षुज्ञानोपयोगका उत्कृष्ट काल दूना है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-ऊपर कहे गये इसी छठे गाथासूत्रसे जाना जाता है कि चक्षुदर्शनोपयोग के उत्कृष्ट कालसे चक्षुज्ञानोपयोगका उत्कृष्ट काल दूना है। (१)-कसायं उव-अ०, आ० । (२)-त्तं कथं ण-अ०, आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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