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________________ गा० १५ ] ३३७ कुदो १ इंदियजणिदचादो, इंदियजणिदणाणेण विसईकयत्थविसयत्तादो च । जदि एवं, तो अणायास्स वि मदिणाणत्तं पावेदिः एयत्थावलंबणं पडि मेयाभावादो। ण; अंतरंगविसस्स उवजोगस्स दंसणेत्तन्भुवगमादी । तं कथं णव्वदे ! अणायारत्तण्णहाणुववत्तदो । अन्वत्तग्गहणमणायारग्गहणमिदि किष्ण घेप्पदे ? ण; एवं संते केवलदंसणस्स णिरावरणत्तादो वत्तग्गहणसहावस्स अभावप्यसंगादो । तम्हा विसयविसयिसंपायादो परिमाण उसे धारणाज्ञान कहते हैं । अवग्रहसे लेकर धारणातक चारों ही ज्ञान मतिज्ञान कहलाते हैं, क्योंकि एक तो ये चारों ही ज्ञान इन्द्रियोंसे उत्पन्न होते हैं और दूसरे, इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए ज्ञानके द्वारा विषय किये गये पदार्थको ही ये ज्ञान विषय करते हैं; इसलिये ये चारों ज्ञान मतिज्ञान कहलाते हैं । शंका-यदि ऐसा है तो अनाकार उपयोग भी मतिज्ञान हो जायगा, क्योंकि इन दोनोंका एक ही पदार्थ आलंबन है । अर्थात् जिस पदार्थको लेकर अनाकार दर्शन होता है उसको लेकर मतिज्ञान होता है । उसकी अपेक्षासे इन दोनोंमें कोई भेद नहीं पाया जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि अन्तरंग पदार्थको विषय करनेवाले उपयोगको दर्शन स्वीकार किया है, इसलिये एक पदार्थको आलंबन मानकर दर्शनोपयोगको जो मतिज्ञानत्वकी प्राप्तिका प्रसंग उपस्थित किया है वह नहीं रहता है । शंका- दर्शनोपयोगका विषय अन्तरंग पदार्थ है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- यदि दर्शनोपयोगका विषय अन्तरंग पदार्थ न माना जाय तो वह अनाकार नहीं बन सकता है, इससे जाना जाता है कि दर्शनोपयोगका विषय अन्तरंग पदार्थ है । शंका- अव्यक्त ग्रहणको अनाकारग्रहण कहते हैं, ऐसा अर्थ क्यों नहीं ग्रहण किया जाता ? समाधान -- नहीं, क्योंकि निरावरण होनेसे केवलदर्शनका स्वभाव व्यक्तग्रहण करनेका है । अब यदि अव्यक्तग्रहणको ही अनाकारग्रहण मान लिया जाता है तो केवलदर्शनके अभावका प्रसङ्ग प्राप्त होता है । (१) "अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स अणायारत्तब्भुवगमादो ।" - ध० आ० प० ८६५ । (२) " दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् · · आलोकनवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका । आलोकत इत्यालोकनमात्मा, वर्तनं वृत्तिः, आलोकनस्य वृत्ति: आलोकनवृत्तिः स्वसंवेदनं तद्दर्शनमिति लक्ष्यनिर्देशः । प्रकाशवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका | प्रकाशो ज्ञानम्, तदर्थमात्मनो वृत्तिः प्रकाशवृत्तिस्तद्दर्शनम् । विषयविषयिसम्पातात् पूर्वावस्था दर्शनमित्यर्थः । " - ध० सं० पृ० १४५ - १४९ । “अत ऊर्ध्वं सिद्धान्ताभिप्रायेण कथ्यते । तथाहि - उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं यत् प्रयत्नं तद्रूपं यत् स्वस्यात्मनः परिच्छेदनमवलोकनं तद्दर्शनं भण्यते । तदनन्तरं यद्वहिर्विषये विकल्परूपेण पदार्थग्रहणं तज्ज्ञानमिति वार्तिकम् । यथा कोऽपि पुरुषो घटविषयविकल्पं कुर्वन्नास्ते, पश्चात् पटपरिज्ञानार्थं चित्ते जाते सति घटविकल्पाद् व्यावर्त्यं यत् स्वरूपे प्रयत्नमवलोकनं परिच्छेदनं करोति तद्दर्शनमिति । तदनन्तरं पटोऽयमिति निश्चयं यद्बहिविषयरूपेण पदार्थग्रहणविकल्पं करोति तज्ज्ञानं भण्यते ।" - बृहद्रव्य० १० १७१ । लघी० ता० डी० पू० १४ । ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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