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________________ ३२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोस विहत्ती १ णिमित्तस्स दव्वस्स उवयारेण पसत्थापसत्थभाववव एसाविरोहादो । ओवयारियभावेण विणा मुहियभाव पाहुडस्स उदाहरणं किण्ण उच्चदे ? ण; तप्पेसणोवायाभावादो । एदेसिमुदाहरणपरूवणमुत्तरमुत्तं भणदि * पसत्थं जहा दोगंधियं पाहुडं । २५. परमाणंदाणंदमेत्तीणं 'दोगंधि' इत्ति ववएसो, तेसिं कारणदव्वाणं पि उवयारेण 'दोगंधिय' ववएसो । तत्थ आणंद मेत्तीणं पडवणाणुववत्तीदो तणिमित्तदव्वभावोंके होने में निमित्त होता है, इसलिये उपचारसे द्रव्यको मी प्रशस्त और अप्रशस्त संज्ञा देने में कोई विरोध नहीं आता है । शंका- यहां औपचारिक नोआगमभावपाहुडकी अपेक्षा न करके मुख्य नोआगमभावपाहुडका उदाहरण क्यों नहीं कहा है ? समाधान- नहीं, क्योंकि मुख्य नोआगमभावपाहुड भेजा नहीं जा सकता है, इसलिये यहां औपचरिक नोआगम भावपाहुडका उदाहरण दिया गया है । विशेषार्थ - नोकर्म तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यनिक्षेपमें सहकारी कारणोंका ग्रहण किया जाता है और नोआगमभावनिक्षेपमें वर्तमान पर्यायका ग्रहण किया जाता है । इस व्याख्याके अनुसार प्रकृतमें नोआगमभावपाहुडके भेद प्रशस्त और अप्रशस्त पाहुडको बतलाते समय आनन्द और द्वेषरूप पर्यायका उपहार या भेटरूपसे कथन करना चाहिये था । पर ऐसा न करके चूर्णिसूत्रकारने आनन्द और द्वेषकी कारणभूत सामग्रीका प्रशस्त और अप्रशस्त नोआगमभाव पाहुडरूपसे कथन किया है जो किसी भी हालत में उपयुक्त नहीं है क्योंकि ये उदाहरण नोआगमभावपाहुडके न होकर नोकर्मतद्व्यतिरिक्तनोआगम द्रव्यपाहुडके हो जाते हैं । इसका जयधवलाकारने जो उत्तर दिया है वह निम्नप्रकार है । यद्यपि यह ठीक है कि नोआगमभावमें वर्तमान पर्याय या उससे उपलक्षित द्रव्यका ग्रहण किया जाता है फिर भी यहां मुख्य नोआगमभावपाहुडका, जो कि आनन्द और कलहरूप पड़ता है, उपहाररूपमें अन्यके पास भेजना नहीं बन सकता है, इसलिये प्रकृतमें मुख्य नोआगमभाव पाहुडका ग्रहण न करके उसके कारणभूत द्रव्यका नोआगमभावपाहुडरूपसे ग्रहण किया है । अब प्रशस्त और अप्रशस्त नोआगमभावपाहुड के उदाहरणों के कथन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं * प्रशस्तनोआगमभावपाहुड, जैसे, दोग्रन्थरूप पाहुड | $ २६५. परमानन्द और आनन्दमात्रकी 'दो ग्रन्थ' यह संज्ञा है । किन्तु यहाँ परमानन्द और आनन्दके कारणभूत द्रव्योंको भी उपचार से 'दो प्रन्थ' संज्ञा दी है । उनमें से केवल परमानन्द और आनन्दरूप भावोंका भेजना बन नहीं सकता है, इसलिये उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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