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________________ गी०१३-१४ ] कसाए णिक्खेवपरूवणा २६३ ६ २५१. सुगममेदं । * संमुप्पत्तियकसाओ णाम, कोहो सिया जीवो सिया णोजीवो एवमभंगा। ६२५२. जीवमजीवं जीवे अजीवे च चत्तारि वि उवरिं हेढा च हविय चत्तारि एगसंजोगभंगे चत्तारि दुसंजोगभंगे च उप्पाइय मेलाविदे कोहुप्पत्तीए कारणाणि समुप्पचियकमाएण कोहसण्णिदाणि अट हवंति । २५३. अत्र स्याच्छब्दः कैचिदर्थे ग्राह्यः । तेण कत्थ विजीवो समुप्पत्तीए कोहो, कत्थ वि णोजीवो, कत्थ वि जीवा, कत्थ वि णोजीवा, कत्थ वि जीवो च णोजीवो च, कत्थ वि जीवों च णोजीवो च, कत्थ वि जीवो च णोजीवा च, कत्थ वि जीवा च णोजीवा च कोहो त्ति सिद्धं । ६ २५४. संपहि अष्टण्हं भंगाणमुदाहरणपरूवणहमुत्तरसुत्तं भणइ* कधं ताव जीवो? २५१. यह सूत्र सरल है। * समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा कहीं पर जीव क्रोधरूप है। कहीं पर अजीव क्रोधरूप है । इसीप्रकार आठ भङ्ग जानने चाहिये । ६२५२. एक जीव, एक अजीव, बहुत जीव और बहुत अजीव और इन ही चारोंको ऊपर और नीचे स्थापित करके चार एक संयोगी भङ्ग और द्विसंयोगी भङ्ग उत्पन्न करके सबको मिला देने पर क्रोधोत्पत्तिके आठ कारण होते हैं। समुत्पत्ति कषायकी अपेक्षासे इन आठ कारणोंकी क्रोध संज्ञा होती है। २५३. यहाँ पर 'स्यात्' शब्द 'कहीं पर' इस अर्थमें लेना चाहिये। इसके अनुसार कहीं पर समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा जीव क्रोध होता है। कहीं पर अजीव क्रोध होता है। इसीप्रकार कहीं पर बहुत जीव, कहीं पर बहुत अजीब, कहीं पर एक जीव और एक अजीव, कहीं पर बहुत जीव और एक अजीव, कहीं पर एक जीव और बहुत अजीव तथा कहीं पर बहुत जीव और बहुत अजीव समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा क्रोध होता है यह सिद्ध हुआ। ६ २५४. अब इन आठ भंगोंके उदाहरण बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं* समुत्पत्तिककषायकी अपेक्षा जीव क्रोध कैसे है ? (२) "खेत्ताइ समुप्पत्ती जत्तोप्पभवो कसायाणं ।"-विशेषा० गा० २९८२॥ "उत्पत्तिकषायाः शरीरोपधिक्षेत्रवास्तुस्थाण्वादयो यदाश्रित्य तेषामुत्पत्तिः।-आचा०नि० शी गा० १९०। (२) चत्तारि. मसंजोगभंगे च आ०, स० । चत्तारिमभंगसंजोगे च अ०। (३) स्याल्लब्धिः क्वचिदर्थग्रा-स०। (४) जीवा च स०। (५) जीवो च णोजीवा च स०। (६) जीवा च णोजीवा च स जीवो च णोजीवोच म०, आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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