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________________ गा० १३-१४ ] furday जोजा २५६ $ २१०. एदस्स सुत्तस्स अत्थं मोत्तूण को णओ कं णिक्खेवमिच्छदित्तिं एदस्स परूवणहं भणिदं । एवं तो णिक्खेवसुतं मोत्तूण णयाणं णिक्खेवविहंजणसुत्तं चैव पुव्वं किष्ण बुच्चदे ? ण; णिक्खेवसुत्तेण विणा एदस्स सुत्तस्स अवयाराभावादो । उत्तं च"उच्चोरयम्मि दुपदे णिक्खेवं वा कयं तु दट्ठूण | अत्यं जयंति ते तच्चदो त्ति तम्हा णया भणिदा ॥ ११८ ॥ " तेर्णं णिक्खेवसुत्तमुच्चरिय णिक्खेवसामिणयपरूवणद्वमुत्तरमुत्तं भणदि * णेर्गेम-संगह ववहारा सव्वे इच्छंति । २११. जेण णामणिक्खेवो तब्भावसारिच्छसामण्णमवलंबिय हिदो, ह्वणाणिक्खेवो व सारिच्छलक्खणसामण्णमवलंबिय द्विदो, दव्वणिक्खेवो वि तदुभयसामपण$ २१०. इस सूत्र अर्थको छोड़कर कौन नय किस निक्षेपको चाहता है, इसका कथन करनेके लिये आचार्यने आगेका चूर्णिसूत्र कहा है । शंका- यदि ऐसा है तो निक्षेपसूत्रको छोड़कर नयोंके अभिप्रायसे निक्षेपोंका विभाग करनेवाले सूत्रको ही पहले क्यों नहीं कहा ? समाधान- नहीं, क्योंकि निक्षेपसूत्र के विना 'कौन नय किस निक्षेपको चाहता है ' इसका प्रतिपादन करनेवाले सूत्रका अवतार नहीं हो सकता है । कहा भी है “पदके उच्चारण करने पर और उसमें किये गये निक्षेपको देखकर अर्थात् समझ कर, यहां पर इस पदका क्या अर्थ है इसप्रकार ठीक रीतिसे अर्थतक पहुंचा देते हैं अर्थात् ठीक ठीक अर्थका ज्ञान कराते हैं इसलिये वे नय कहलाते हैं ॥११८॥” अतः निक्षेपसूत्रका उच्चारण करके अब किस निक्षेपका कौन नय स्वामी है इसका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * नैगमनय, संग्रहनय और व्यवहारनय सभी निक्षेपोंको स्वीकार करते हैं । ९२११. शंका- चूंकि नामनिक्षेप तद्भावसामान्य और सादृश्यसामान्यका अवलम्बन लेकर होता है, स्थापनानिक्षेप भी सादृश्यसामान्यका अवलम्बन लेकर होता है और द्रव्यनिक्षेप भी उक्त दोनों सामान्योंके निमित्तसे होता है। इसलिये नामनिक्षेप, स्थापनानिक्षेप और द्रव्यनिक्षेप इन तीनों निक्षेपोंके नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीनों ही द्रव्यार्थिकनय (१) त्तिमिच्छादिट्ठी एदस्स परूवण (त्रु० ४) एवं स० । त्तिमिच्छादिट्ठी एदस्स परूवणट्ठ भणिदं एवं अ० अ० । (२) "उच्चारियमत्थपदं णिक्खेवं वा कयं तु दट्ठूण । अत्थं जयंति तच्चतमिदि तदो ते या भणिया ।" - ध० सं० पृ० १० । “सुत्तं पयं पयत्थो पयनिक्खेवो य निन्नयपसिद्धी ।" - बृ० क० सू० ३०९ । (३) एदेण अ०, आ०, स० । (४) तुलना - " भावं चिय सद्दनया सेसा इच्छंति सव्वनिक्खेवे । ठवणावज्जे संगहववहारा केइ इच्छंति । दव्वट्ठवणावज्जे उज्जुसुओ" वि० भा० गा० ३३९७ । "तत्थ गमसंगहववहारणएसु सव्वे एदे णिक्खेवा "ध० सं० पृ० १४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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