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________________ गा० १३-१४ ] गंथसण्णावेक्खा परूवणं २५७ २०६. न चैकान्तेन नयाः मिथ्यादृष्टय एवः परपक्षानिराकरिष्णूनां सप (स्वप) क्षसश्वावधारणे व्यापृतानां स्यात्सम्यग्दृष्टित्वदर्शनात् । उक्तञ्च"णिययवयणिज्जसच्चा सव्वणया परवियालणे मोहा । ते उण ण दिट्ठसमओ विर्भयइ सच्चे व अलिए वो ॥ ११७ ॥" $ २०७. संपहि एवं णयणिरुवणं काऊण पयदस्स परूवणं कस्सामो । पेजदोसो (सा) बेवि जीवभावविणासणलक्खणत्तादो कसाया णाम । कसायस्स पाहुडं कसायपाहुडें । एसा सण्णा यदो णिप्पण्णा । कुदो ? दव्वयिणयमवलंबिय समुप्पण्णत्तादो । न्यरूप और किसी दूसरी अपेक्षासे विशेषरूप है । उसमें द्रव्यार्थिक नयका विषय पर्यायार्थिकनयके विषयस्पर्शसे और पर्यायार्थिकनयका विषय द्रव्यार्थिकनय के विषयस्पर्शसे रहित नहीं हो सकता है । ऐसी स्थिति के होते हुए भी नयके द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक भेद करनेका कारण विषयकी गौणता और प्रधानता है । जब विशेषको गौण करके मुख्यरूप से सामान्यका अवलम्बन लेकर दृष्टि प्रवृत्त होती है तब वह द्रव्यार्थिक है और जब सामान्यको गौण करके मुख्यरूपसे विशेषका अवलम्बन लेकर दृष्टि प्रवृत्त होती है तब वह पर्यायार्थिक है ऐसा समझना चाहिये ॥ ११६ ॥ २०६. द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय एकान्तसे मिध्यादृष्टि ही हैं ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो नय परपक्षका निराकरण नहीं करते हुए ही अपने पक्ष के अस्तित्वका निश्चय करनेमें व्यापार करते हैं उनमें कथंचित् समीचीनता पाई जाती है । कहा भी है “ये सभी नय अपने अपने विषयके कथन करनेमें समीचीन हैं और दूसरे नयोंके निराकरण करनेमें मूढ़ हैं । अनेकान्तरूप समयके ज्ञाता पुरुष 'यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है' इसप्रकारका विभाग नहीं करते हैं ॥११७॥ " विशेषार्थ - - हरएक नयकी मर्यादा अपने अपने विषयके प्रतिपादन करने तक सीमित है । इस मर्यादा में जब तक वे नय रहते हैं तब तक वे सच्चे हैं और इस मर्यादाको भंग करके जब वे नय अपने प्रतिपक्षी नयके कथनका निराकरण करने लगते हैं तब वे मिथ्या हो जाते हैं। इसलिये हर एक नयकी मर्यादाको जाननेवाला और उनका समन्वय करनेवाला अनेकान्तज्ञ पुरुष दोनों नयोंके विषयको जानता हुआ एक नय सत्य ही है और दूसरा नय असत्य ही है ऐसा विभाग नहीं करता है । किन्तु किसी एक नयका विषय उस नयके प्रतिपक्षी दूसरे नयके विषयके साथ ही सच्चा है ऐसा निश्चय करता है ॥११७॥ २०७. इसप्रकार नयोंका निरूपण करके अब प्रकृत विषयका कथन करते हैं । पेज और दोष इन दोनोंका लक्षण जीवके चारित्र धर्मका विनाश करना है इसलिये ये दोनों कषाय कहलाते हैं। और कषायके कथन करनेवाले प्राभृतको कषायप्राभृत कहते (१) विहजइ अ० आ०, स० । (२) सम्मति० ११२८ । ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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