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________________ गा०१३-१४] गयपरूवणं २५५ कथश्चित्ते सदेवेष्टं कथञ्चिदसदेव तत् । ततो (तथो) भयमवाच्यं च नययोगान सर्वथा ॥११३॥ नोन्वयः सहभेदत्वान्न भेदोऽन्वयवृत्तितः । मृद्भेदद्वयसंसर्गवृत्ति जात्यन्तरं हि तत् ॥११४॥ "हे जिन, आपके मतमें मानी गई वस्तु कथंचित् सद्रूप ही है, कथंचित् असदूप ही है, कथंचित् उभयात्मक ही है और कथंचित् अवक्तव्य ही है। इसी तरह सदवक्तव्य असदद्वक्तव्य और उभयावक्तव्यरूप भी है। किंतु यह सब नयके संबन्धसे है, सर्वथा नहीं ॥११३॥” विशेषार्थ-प्रत्येक वस्तु वचतुष्टयकी अपेक्षा सत् है और परचतुष्टयकी अपेक्षा असत् है । यदि घटको स्वद्रव्यादिकी अपेक्षा सद्रूप न माना जाय तो आकाशकुसुमकी तरह उसका अभाव हो जायगा। तथा परद्रव्यादिकी अपेक्षा यदि घटको असद्रूप न माना जाय तो सर्वत्र घट इसप्रकारका व्यवहार होने लगेगा। इससे निश्चित होता है कि प्रत्येक वस्तु स्वचतुष्टयकी अपेक्षा सत् है और परचतुष्टयकी अपेक्षा असत् है । इसप्रकार ऊपर कहे गये सत् और असद्रूप दोनों धर्म एक साथ प्रत्येक वस्तुमें पाये जाते हैं अतः वे सर्वथा भिन्न नहीं हैं। यदि इन्हें सर्वथा भिन्न माना जाय तो जिसप्रकार घटमें पटरूप और पटमें घटरूप बुद्धि नहीं होती है तथा घटको पट और पटको घट नहीं कह सकते हैं उसीप्रकार एक ही वस्तु में सत् और असत् इसप्रकारकी बुद्धि और वचनव्यवहार नहीं बन सकेगा। अत: ये दोनों धर्म कथंचित् तादात्म्यसम्बन्धसे प्रत्येक वस्तुमें रहते हैं। इससे निश्चित होता है कि प्रत्येक वस्तु कथंचित् सद्रूप ही है और कथंचित् असद्रूप ही । फिर भी इसप्रकारकी वस्तु वचनों द्वारा क्रमसे ही कही जा सकती है, अतः जब उसे क्रमसे कहा जाता है तो वह उभयात्मक सिद्ध होती है। तथा जब उसी वस्तुके उन दोनों धर्मोंको एकसाथ कहना चाहते हैं तब जिससे वस्तुके दोनों धर्म एक साथ कहे जा सकें ऐसा कोई एक शब्द न होनेसे वस्तु अवक्तव्य सिद्ध होती है। इसप्रकार हे जिन, आपके मतमें एक ही वस्तु नयकी अपेक्षासे सप भी है, असद्रूप भी है, उभयात्मक भी है और अवक्तव्य भी है तथा 'च' शब्दसे सदवक्तव्य असदवक्तव्य और उभयावक्तव्यरूप भी है। यह निश्चित हो जाता है॥११३॥ "घटादिपदार्थ केवल अन्वयरूप नहीं हैं, क्योंकि उनमें भेद भी पाया जाता है। तथा केवल भेदरूप भी नहीं है क्योंकि उनमें अन्वय भी पाया जाता है। किन्तु मिट्टीरूप (२) ...तथोभयमवाच्यं . ."-आप्तमी० श्लो० १४ । (२) "तथा चोक्तम्-नान्वयस्तद्विभेदत्वान्न .."-अनेकान्तजय० पृ० ११९ । "तथा चोक्तम्-नान्वयः सह भेदित्वात् न भेदोन्वयवृत्तितः । मृभेदद्वयसंसर्गवृत्तिजात्यन्तरं घटः ॥"-अनेकान्तवाद० पृ० ३१॥ "स घटो नान्वय एव । कुत इत्याह-ऊर्ध्वादिरूपेण भेदित्वात्..."-अनेकान्तवाद० टि० पृ० ३१ । “यथाह-नान्वयो भेदरूपत्वान्न भेदोऽन्वयरूपतः । मृतॊदद्वयसंसर्गवत्तिजात्यन्तरं घटः॥"-त० भा० टी० ५।२९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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