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गा०१३-१४] गायपरूवेग
२५१ सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे । अन्यत्रसमवाये न व्यपदिश्येत सर्वयों ॥१०५॥ अभावकान्तपक्षेऽपि भावापन्हववादिनाम् ।
बोधवाक्यं प्रमाणं न केन साधन-दूषण ॥१०६॥ विशेषार्थ-कार्यकी पूर्ववर्ती पर्यायको प्रागभाव और उत्तरवर्ती पर्यायको प्रध्वंसाभाव कहते हैं। यदि उसकी पूर्वपर्याय और उत्तर पर्यायमें भी घटादिरूप कार्यद्रव्य स्वीकार किया जाता है तो घटके उत्पन्न होनेके पहले और विनाश होनेके अनन्तर भी उससे जलधारणादि कार्य होने चाहिये । पर ऐसा होता हुआ नहीं देखा जाता है इससे प्रतीत होता है कि कार्यरूप वस्तु अनादि और अनन्त न होकर सादि और सान्त है। फिर भी जो सर्वथा सत्कार्यवादी सांख्यादि कार्यको सर्वदा सत् स्वीकार करते हैं उनके यहाँ प्रागभाव
और प्रध्वंसाभाव नहीं बन सकते हैं । और उनके नहीं बननेसे कार्यद्रव्यको अनादि और अनन्तपनेका प्रसंग प्राप्त होता है जो कि युक्त नहीं है ॥१०४॥
"एक द्रव्यकी एक पर्यायका उसीकी दूसरी पर्यायमें जो अभाव है उसे अन्यापोह या इतरेतराभाव कहते हैं। इस इतरेतराभावके अपलाप करने पर प्रतिनियत द्रव्यकी सभी पर्यायें सर्वात्मक हो जाती हैं। रूपादिकका स्वसमवायी पुद्गलादिकसे भिन्न जीवादिकमें समवेत होना अन्यत्रसमवाय कहलाता है। यदि इसे स्वीकार किया जाता है अर्थात् यदि अत्यन्ताभावका अभाव माना जाता है तो पदार्थका किसी भी असाधारण रूपसे कथन नहीं किया जा सकता है ॥१०॥"
विशेषार्थ-आशय यह है कि इतरेतराभावको नहीं मानने पर एक द्रव्यकी विभिन्न पर्यायों में कोई भेद नहीं रहता-सब पर्याये सबरूप हो जाती हैं। तथा अत्यन्ताभावको नहीं मानने पर सभी वादियोंके द्वारा माने गये अपने अपने मूल तत्त्वोंमें कोई भेद नहीं रहता-एक तत्त्व दूसरे तत्त्वरूप हो जाता है। ऐसी हालतमें जीवद्रव्य चैतन्य गुणकी अपेक्षा चेतन ही है और पुद्गल द्रव्य अचेतन ही है ऐसा नहीं कहा जा सकता है। अतः अभावोंका सर्वथा अपलाप करके भावैकान्त मानना ठीक नहीं है ॥१०॥
"जो वादी भावरूप वस्तुको स्वीकार नहीं करते हैं उनके अभावैकान्त पक्षमें भी बोध अर्थात् स्वार्थानुमान और वाक्य अर्थात् परार्थानुमान प्रमाण नहीं बनते हैं । ऐसी अवस्थामें वे स्वमतका साधन किस प्रमाणसे करेंगे और परमतमें दूषण किस प्रमाणसे देंगे ॥१०६॥"
विशेषार्थ-भावैकान्तमें दोष बतलाकर अब अभावैकान्तमें दोष बतलाते हैं । बौद्धमतका माध्यमिक सम्प्रदाय भावरूप वस्तुको स्वीकार नहीं करता है। उसके मतसे जगमें शून्यको छोड़कर सद्रूप कोई पदार्थ नहीं है। अतः उसके मतमें सभी पदार्थोके अभावरूप
(१) तदेवं स्मा-अ०, । ता० । (२) आप्तमी० श्लो० ११ । (३) आप्तमी० श्लो० १२।
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