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________________ गा० १३-१४] णयपरूवणं २४३ वाच्यवाचकभावः प्रणश्यतीति चेत् । नैष दोषः; नयविषयप्रदर्शनात् । एवं सप्तानां नयानां दिङ्मात्रेण स्वरूपनिरूपणा कृता । शंका-यदि एवंभूतनयको उक्त अभिप्रायवाला माना जायगा तो वाच्यवाचकभावका लोप हो जायगा। समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ पर एवंभूत नयका विषय दिखलाया है। इसप्रकार सातों नयोंके स्वरूपका संक्षेपसे निरूपण किया। विशेषार्थ-(१) पर्यायार्थिकनय पर्यायको विषय करता है द्रव्यको नहीं, यह तो ऊपर ही कहा जा चुका है। पर्यायार्थिकनयके इस लक्षणके अनुसार ऋजुसूत्र आदि सभी पर्यायार्थिक नयोंका विषय वर्तमानकालीन एकसमयवर्ती पर्याय होता है यह ठीक है। फिर भी ऋजुसूत्र नयमें लिंगादिके भेदसे होनेवाला पर्यायभेद अविवक्षित है, अतः शब्दनयकी अपेक्षा ऋजुसूत्रका विषय सामान्यरूप हो जाता है और शब्दनयका विशेषरूप । शब्दनयमें पर्यायवाची शब्दोंके भेदसे होनेवाला पर्यायभेद अविवक्षित है, इसलिये समभिरूढनयकी अपेक्षा शब्दनयका विषय सामान्यरूप हो जाता है और समभिरूढनयका विशेषरूप । इसीप्रकार समभिरूढनयमें वर्णभेदसे होनेवाला पर्यायभेद अविवक्षित है, इसलिये एवंभूतनयकी अपेक्षा समभिरूढनयका विषय सामान्यरूप हो जाता है और एवंभूतनयका विषय विशेषरूप । एवंभूतनयके इसी विषयको ध्यानमें रख कर ऊपर पदोंमें एककालवृत्ति समास और एकार्थवृत्तिसमासका निषेध करके यह बतलाया है कि इस नयकी दृष्टिमें जिसप्रकार पदोंका समास नहीं बनता है उसीप्रकार वर्गों का भी समास नहीं बनता है। अतएव इस नयका विषय प्रत्येक वर्णका वाच्यभूत अर्थ ही समझना चाहिये। (२) इसप्रकार ऊपर जो सात नय कहे गये हैं वे उत्तरोत्तर अल्प विषयवाले हैं, अर्थात् नैगमनयके विषयमें संग्रह आदि छहों नयोंका विषय समा जाता है। संग्रह नयके विषयमें व्यवहार आदि पांचों नयोंका बिषय समा जाता है। इसीप्रकार आगे भी समझना चाहिये । इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि संग्रहनयकी अपेक्षा नैगमका, व्यवहार की अपेक्षा संग्रहका और ऋजुसूत्र आदिकी अपेक्षा व्यवहार आदिका विषय महान है। अर्थात् नैगमनयका समग्र विषय संग्रहनयका अविषय है। संग्रहनयका समग्र विषय व्यवहारनयका अविषय है। इसीप्रकार आगे भी समझना चाहिये । इन सातों नयों में से नैगम नय द्रव्य और पर्यायगत भेदाभेदको गौण-मुख्यभावसे ग्रहण करता है इसलिये संग्रहनयके विषयसे नैगमनयका विषय महान् है और नैगमनयके विषयसे संग्रह नयका विषय अल्प है। संग्रहनय अभेदरूपसे द्रव्यको ग्रहण करता है, इसलिये व्यवहारनयसे संग्रहनयका विषय महान् है और संग्रहनयसे व्यवहारनयका विषय अल्प है। व्यवहारनय भेदरूपसे द्रव्यको विषय करता है, इसलिये ऋजुसूत्रनयके विषयसे व्यवहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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