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________________ २४१ गा० १३-१४ ] णयपरूवणं मेदाद्वाच्यभेद इति; न; प्रकाश्यादिन्नानामेव प्रमाण-प्रदीप-सूर्य-मणीन्द्वादीनां प्रकाशकत्वोपलम्भात् , सर्वथैकत्वे तदनुपलम्भात् । ततो भिन्नोऽपि शब्दोऽर्थप्रतिपादक इति प्रतिपत्तव्यम् । समाधान-नहीं, क्योंकि जिसप्रकार प्रमाण, प्रदीप, सूर्य, मणि और चन्द्रमा आदि पदार्थ घट पट आदि प्रकाश्यभूत पदार्थोंसे भिन्न रहकर ही उनके प्रकाशक देखे जाते हैं, तथा यदि उन्हें सर्वथा अभिन्न माना जाय तो उनमें प्रकाश्यप्रकाशकभाव नहीं बन सकता है उसीप्रकार शब्द अर्थसे भिन्न होकर भी अर्थका वाचक होता है ऐसा समझना चाहिये । इसप्रकार जब शब्द अर्थका वाचक सिद्ध हो जाता है तो वाचक शब्दके भेदसे उसके वाच्यभूत अर्थ में भेद होना ही चाहिये। विशेषार्थ-समभिरूढ़नय पर्यायवाची शब्दोंके भेदसे अर्थमें भेद स्वीकार करता है। इस पर शङ्काकारका कहना है कि शब्द अर्थका धर्म नहीं है, क्योंकि शब्द और अर्थमें भेद है। यदि शब्दका और अर्थका एकसाथ एक इन्द्रियसे ग्रहण होता, दोनों ही एक कार्य करते, दोनों ही एक प्रकारके कारणसे उत्पन्न होते, और दोनों में उपाय-उपेयभाव न होता तो शब्दको अर्थसे अभिन्न भी माना जा सकता था। पर ऐसा है नहीं, क्योंकि शब्दका ग्रहण श्रोत्र इन्द्रियसे होता है और अर्थका ग्रहण चक्षु इन्द्रियसे । शब्द श्रोत्रप्रदेश में पहुँचकर भिन्न अर्थक्रियाको करता है और घटादि अर्थ जलधारणादिरूप भिन्न अर्थक्रियाको करते हैं । शब्द तालु आदि कारणोंसे उत्पन्न होता है और घटादि अर्थ मिट्टी कुम्हार और चक्र आदि कारणोंसे उत्पन्न होते हैं । शब्द उपाय है और अर्थ उपेय । तथा शब्द और अर्थमें विशेषण-विशेष्यभाव होनेसे शब्दभेदसे अर्थभेद बन जायगा यह कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि भिन्न दो पदार्थों में विशेषण-विशेष्यभाव भी नहीं बन सकता है। इसप्रकार शब्दका अर्थसे भेद सिद्ध हो जाने पर शब्दभेदसे अर्थभेद मानना युक्त नहीं है। इसका यह समाधान है कि यद्यपि शब्द अर्थसे भिन्न है, फिर भी शब्द अर्थका वाचक है ऐसा माननेमें कोई आपत्ति नहीं है। प्रमाण, प्रदीप, सूर्य, मणि और चन्द्रमा आदि पदार्थ यद्यपि अपने प्रकाश्यभूत घटादि पदार्थोंसे भिन्न पाये जाते हैं फिर भी वे घटादि पदार्थोंके प्रकाशक हैं । अतः जब मणि आदि पदार्थ अपनेसे भिन्न घटादि पदार्थों के प्रकाशक हो सकते हैं तो शब्द अपनेसे भिन्न अर्थके वाचक रहें इसमें क्या आपत्ति है ? सर्वथा अभेदमें वाच्यवाचकभाव और प्रकाश्यप्रकाशकभाव बन भी नहीं सकता है, क्योंकि वाच्यवाचक और प्रकाश्यप्रकाशकभाव दोमें होता है। अतः शब्द अर्थसे भिन्न होता हुआ भी साधनत्वात् भिन्नार्थक्रियाकारित्वात् उपायोपेयरूपत्वात् त्वगिन्द्रियग्राह्याग्राह्यत्वात् क्षुरमोदकशब्दोच्चारणे मुखस्य घटनपूरणप्रसङ्गात् वैयधिकरण्यात् ।"-ध० आ० ५० ५४४ । (१)-कत्वं त-अ०। -कत्व त-आ०, स० । ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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