SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० १३-१४] णयपरूवणं २३६ 8 १६६. प्रमाणार्थयोः स्वभावत एव ग्राह्यग्राहकभावश्चेत् । तर्हि शब्दार्थयोः स्वभावत एव वाच्यवाचकभावः किमिति नेष्यते अविशेषात् ? यदि स्वभावतो वाच्यवाचकभाव (व:) किमिति पुरुषव्यापारमंपेक्षते चेत् ? प्रमाणेन स्वभावतोऽर्थसम्बद्धेन किमितीन्द्रियमालोको वा अपेक्ष्यत इति समानमेतत् । शब्दार्थसम्बन्धः कृत्रिमत्वाद्वा पुरुषव्यापारमपेक्षते । १२००. नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढः, इन्दनादिन्द्रः शकनाच्छकः पूर्दारणात् पुरन्दर इति । नैते एकार्थवाचकाः भिन्नार्थप्रतिबद्धत्वात् । पदभेदान्यथानुपपत्तेरर्थभेदेन १९९. इसप्रकार यदि प्रमाण और अर्थ में स्वभावसे ही ग्राह्यग्राहकभाव सम्बन्ध स्वीकार किया जाता है तो शब्द और अर्थमें स्वभावसे ही वाच्यवाचकभाव सम्बन्ध क्यों नहीं मान लिया जाता है, क्योंकि जो आक्षेप और समाधान शब्द और अर्थके सम्बन्धके विषयमें किये जाते हैं वे सब प्रमाण और अर्थके सम्बन्धके विषयमें भी लागू होते हैं, दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है । शंका-शब्द और अर्थमें यदि स्वभावसे ही वाच्य-वाचकभाव सम्बन्ध है तो फिर वह पुरुषव्यापारकी अपेक्षा क्यों करता है ? समाधान-प्रमाण यदि स्वभावसे ही अर्थसे सम्बद्ध है तो फिर वह इन्द्रियव्यापार या आलोककी अपेक्षा क्यों करता है ? इसप्रकार शब्द और प्रमाण दोनोंमें शंका और समाधान समान है। फिर भी यदि प्रमाणको स्वभावसे ही पदार्थोंका ग्रहण करनेवाला माना जाता है तो शब्दको भी स्वभावसे ही अर्थका वाचक मानना चाहिये। ___अथवा, शब्द और पदार्थका सम्बन्ध कृत्रिम है। अर्थात् पुरुषके द्वारा किया हुआ है, इसलिये वह पुरुषके व्यापारकी अपेक्षा रखता है । १२००. शब्दभेदसे जो नाना अर्थों में अभिरूढ़ है अर्थात् जो शब्द भेदसे अर्थभेद मानता है उसे समभिरूढनय कहते हैं । जैसे-एक ही देवराज इन्दनक्रियाका कर्ता अर्थात् आज्ञा और ऐश्वर्य आदिसे युक्त होनेके कारण इन्द्र, शकनात् अर्थात् सामर्थ्यवाला होनेके कारण शक्र और पुर अर्थात् नगरोंका दारण अर्थात् विभाग करनेवाला होने के कारण पुरन्दर कहलाता है । ये तीनों शब्द भिन्न भिन्न अर्थसे सम्बन्ध रखते हैं इसलिये एक अर्थके वाचक नहीं हैं। आशय यह है कि अर्थभेदके बिना पदोंमें भेद बन नहीं सकता है, इसलिये लघी० का० ५९। (१)-पेक्ष्यते अ०, आ० । (२)-सम्बन्धकृत्रि-अ०, आ० । (३) "नानार्थसमभिरोहणात समभिरूढः । यतो नानार्थान समतीत्यैकमर्थमाभिमुस्येन रूढः समभिरूढः । अथवा यो यत्राभिरूढः स तत्र समेत्याभिमुख्येनारोहणात् समभिरूढः ।"-सर्वार्थसि०, राजवा० १।३३। “पर्यायभेदादभिरूढोऽर्थभेदकृत्"लघी० स्ववृ० का० ७२ । प्रमाणसं० का० ८३ । त० श्लो० पृ० २७३ । नयविव० श्लो० ९२ । प्रमेयक० १०६७९। नयचक्र० गा० ४१॥ "वत्थूओ संकमणं होइ अवत्थू नए समभिरूढे:"-अन० सू०१४५। आ०नि० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy