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________________ २२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ यापरिणामाभावात् । यमेवाकाशदेशमवगाटुं समर्थः आत्मपरिणामं वा तत्रैवास्य वसतिः। १८८.ने कृष्णः काकोऽस्य नयस्य। तद्यथा-यः कृष्णःस कृष्णात्मक एव न काकात्मकः; भ्रमरादीनामपि काकतापत्तेः। काकश्च काकात्मको न कृष्णात्मकः; तत्पितास्थिरुधिराणामपि कृष्णतापत्तेः। १८६. न चास्य नयस्य सामानाधिकरण्यमस्ति; 'कृष्णशाटी' इत्यत्र कृष्णशाटीभ्यां व्यतिरिक्तस्यैकस्य द्वयोरधिकरणभावमापनस्यानुपलम्भात् । न शाट्यप्यस्ति; कृष्णवर्णव्यतिरिक्तशाव्यनुपलम्भात् । ६ १६०. अस्य नयस्य निर्हेतुको विनाशः। तद्यथा-न तावत्प्रसज्यरूपः परत पर 'कहींसे भी नहीं आ रहा हूं' इसप्रकार यह ऋजुसूत्रनय मानता है, क्योंकि जिस समय प्रश्न किया गया उस समय आगमनरूप क्रिया नहीं पाई जाती है । तथा इस नयकी दृष्टिसे वह जितने अकाशदेशको अवगाहन करने में समर्थ है, अर्थात् वह आकाशके जितने देशको रोकता है, उसीमें उसका निवास है। अथवा वह अपने जिस आत्मस्वरूपमें स्थित है उसीमें उसका निवास है। १८८, तथा इस नयकी दृष्टिमें 'काक कृष्ण होता है' यह व्यवहार भी नहीं बन सकता है। इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-जो कृष्ण है वह कृष्णरूप ही है, काकरूप नहीं है, क्योंकि कृष्णको यदि काकरूप माना जाय तो भ्रमर आदिकको भी काकरूप माननेकी आपत्ति प्राप्त होती है। उसीप्रकार काक भी काकरूप ही है कृष्णरूप नहीं है, क्योंकि यदि काकको कृष्णरूप माना जाय तो काकके पीले पित्त सफेद हड्डी और लाल रुधिर आदिकको भी कृष्णरूप माननेकी आपत्ति प्राप्त होती है। ___ १८६. तथा इस नयकी दृष्टि में समानाधिकरणभाव भी नहीं बनता है, अर्थात् दो धर्मोंका एक अधिकरण नहीं बनता है, क्योंकि 'कृष्ण साड़ी' इस प्रयोगमें कृष्ण और साड़ी इन दोनोंसे अतिरिक्त कोई एक पदार्थ, जो कि इन दोनोंका आधार हो, नहीं पाया जाता है। यदि कहा जाय कि कृष्ण और साड़ी इन दोनोंका आधार साड़ी है सो भी कहना ठीक नहीं हैं, क्योंकि कृष्णवर्णसे अतिरिक्त साड़ी नहीं पाई जाती हैं। ६१६०. तथा इस नयकी दृष्टि में विनाश निर्हेतुक है, अर्थात् उसका कोई कारण नहीं है। (१) "यमेवाकाशमवगाढुं समर्थ आत्मपरिणामं वा तत्रैवास्य वसतिः।"-राजवा० ११३३ । १० आ० ५० ५४३ । “उज्जुसुअस्स जेसु आगासपएसु ओगाढो तेसु वसइ तिण्हं सद्दनयाणं आयभावे वसइ ।" -अनु० सू० १४५। "ऋजुसूत्र: प्रदेशेषु स्वावगाहनकृत्सु खे॥ तेष्वप्यभीष्टसमये न पुनः समयान्तरे। चलोपकरणत्वेनान्यान्यक्षेत्रावगाहनात् ॥"-नयोप० श्लो० ७१-७२ । (२) "न कृष्णः काकः उभयोरपि स्वात्मकत्वात् कृष्णः कृष्णात्मको न काकात्मकः.."-राजवा० ११३३ । ध० आ० ५० ५४३। (३) "न सामानाधिकरण्यम्-एकस्य पर्यायेम्योऽनन्यत्वात् पर्याया एव विविक्तशक्तयो द्रव्यं नाम न किञ्चिदस्तीति।"-राजवा० ११३३ । ध० आ० ५० ५४३ । (४) "किञ्च, न च विनाशोऽन्यतो जायते, तस्य जातिहेतुत्वात् । अत्रोपयोगी श्लोक:-जातिरेव हि भावानां..। न च भावः अभावस्य हेतुः; घटादपि खरविषाणोत्पत्तिप्रसङ्गात । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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