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________________ गा० १३-१४] णयपरूवणं २११ ___ १७६. किमर्थ नय उच्यते ? “स एष याथात्म्योपलब्धिनिमित्तत्वाद्भावानां श्रेयोऽपदेशः ॥५॥" अस्यार्थः-श्रेयसो मोक्षस्य अपदेशः कारणम् ; भावानां याथात्म्योपलब्धिनिमित्तभावात् । 8 १७७. स एष नयो द्विविधः-द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति । द्रवति गच्छति तांस्तान्पर्यायान् , द्रूयते गम्यते तैस्तैः पर्यायैरिति वा द्रव्यम् । तच्च द्रव्यमेकद्वित्रिचतु:पंचषट्सप्ताष्टनवदशैकादशादिभेदेनानन्तविकल्पम् । तद्यथा-'सत्ता' इत्येकं द्रव्यम् । देशादिना भिन्नायाः सत्तायाः कथमेकत्वमिति चेत् ;न; देशादेस्सत्तातोऽभिन्नस्य व्यवच्छेदक विशेषार्थ-पहले अन्तरंग नयका लक्षण कह आये हैं। वहां यह भी बता आये हैं कि अन्तरंग नयसे ज्ञानात्मक नय अभिप्रेत है। अब यहां वचनात्मक नयका लक्षण कहा गया है। इसका यह अभिप्राय है कि जो वचन एक धर्मके द्वारा वस्तुका कथन करता है वह वचन वचनात्मक नय कहलाता है। १७६. शंका-नयका कथन किसलिये किया जाता है ? समाधान-"यह नय, पदार्थोंका जैसा स्वरूप है उस रूपसे उनके ग्रहण करने में निमित्त होनेसे मोक्षका कारण है ॥८॥" इसलिये नयका कथन किया जाता है। मूलवाक्यका शब्दार्थ यह है कि नय श्रेयस् अर्थात् मोक्षका अपदेश अर्थात् कारण है, क्योंकि वह पदार्थोंके यथार्थरूपसे ग्रहण करनेमें निमित्त है। १७७. वह नय दो प्रकारका है-द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय । जो उन उन पर्यायोंको प्राप्त होता है या उन उन पर्यायोंके द्वारा प्राप्त किया जाता है वह द्रव्य है। वह द्रव्य एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ, दस, और ग्यारह आदि भेदोंकी अपेक्षा अनन्त विकल्परूप है। जैसे-'सत्ता' यह एक द्रव्य है। शंका-देशादिककी अपेक्षा सत्ता में भेद पाया है, इसलिये वह एक कैसे हो सकती है ? (१)-त् एष अ० । (२) "नयो द्विविधः द्रव्यार्थिकः पर्यायाथिकश्च"-सर्वार्थसि० ११६ । "द्वौ मूलभेदी द्रव्यास्तिक: पर्यायास्तिक इति । अथवा... 'द्रव्यार्थिकः... पर्यायार्थिकः"-राजवा०१॥३३ । "तत्र मलनयो द्रव्य-पर्यायार्थगोचरौ......"-सिद्धिवि०, टी० पू० ५२१ । लघी० स्ववृ० पृ० १०। "तच्च सच्चतुर्विधम् ; तद्यथा द्रव्यास्तिकं मातृकापदास्तिकम् उत्पन्नास्तिकं पर्यायास्तिकमिति । इत्थं द्रव्यास्तिकं मातृकापदास्तिकं च द्रव्यनयः, उत्पन्नास्तिकं पर्यायास्तिकं च पर्यायनयः"-तत्त्वार्थभा०, हरि० ५।३१। "दव्वदिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्पासि"-सन्मति०१३। "तेषां वा शासनाराणां द्रव्यार्थपर्यायार्थनयौ द्वौ समासतो मूलभेदी तत्प्रभेदाः संग्रहादयः ।"-नयचक्रव० ५० ५२६ । विशेषा० गा० ४३३१ । तुलना-“दव्वत्थिएण जीवाः ‘पज्जयणयेण जीवा. ."-नियम० गा० १९ । (३) “दवियदि गच्छदि ताई ताई सब्भावपज्जयाई जं । दवियं तं भण्णंते .."-पञ्चा• गा० ९ । “यथास्वं पर्याय यन्ते द्रवन्ति वा तानि द्रव्याणि"-सार्थ०५।२। लघी० स्व०व०प०११। "द्रोविकारो द्रव्यम, द्रोरवयवो वा द्रव्यम, द्रव्यं च भव्ये भवतीति भव्यं द्रव्यम्, द्रवतीति द्रव्यम्, द्रूयते वा, द्रवणात् गुणानां गुणसन्द्रावो द्रव्यम् ।"-नयचक्रवृ० प० ४४१ । विशेषा० गा० २८। “अन्वर्थ खल्वपि निर्वचनं गुणसन्द्रावो द्रव्यमिति ।"-पात० महाभा० ५।१।११९ । (४) तुलना-“सदित्येकं वस्तु सर्वस्य सतोऽविशेषात् . ."-ध० आ० ५० ५४२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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