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________________ गा.१३-१४] यायपरूवणं २०५ ही अधिक श्रेयस्कर होगा। आज भी एक ही विषयको भिन्न दो व्यक्ति दो प्रकारसे और एक ही व्यक्ति भिन्न भिन्न कालमें भिन्न भिन्न प्रकारसे समझाते हैं। और व्याख्यानकी उन सब पद्धतियोंसे श्रोताको इष्ट तत्त्वका बोध भी हो जाता है । इसलिये यह निश्चित होता है कि सकलादेश और विकलादेशके वचन प्रयोगमें भेदक रेखा खीचनेकी अपेक्षा अनेकान्तका अनुसरण करना ही ठीक है। सकलादेश और विकलादेशके संबंधमें सबसे बड़ा मौलिक मतभेद यह है कि कुछ आचार्य सकलादेशके प्रतिपादक वचनोंको प्रमाणवाक्य और कुछ आचार्य सुनयवाक्य कहते हैं। तथा विकलादेशके प्रतिपादक वचनोंको कुछ आचार्य नयवाक्य और कुछ आचार्य दुर्नयवाक्य कहते हैं। स्वयं वीरसेन स्वामीने इस विषयमें दूसरे मतका अनुसरण किया है । तथा वे नयवाक्यके साथ 'स्यात्' शब्द न लगा कर 'अस्त्येव' इतने वचनको ही विकलादेश कहते हैं। पर उन्होंने ही आगे चलकर 'रसकसाओ णाम कसायरसं दव्वं दव्वाणि वा कसाओ' इस सूत्रकी व्याख्या करते समय जो सप्तभंगी दी है उसमें उन्हें 'स्यात्' शब्दका प्रयोग अत्यन्त आवश्यक प्रतीत हुआ है। वहाँ तो वे यहाँ तक लिखते हैं कि 'यदि शब्दके साथ ‘स्यात्' शब्द का प्रयोग न माना जाय तो वह अन्य अर्थका सर्वथा निराकरण कर देगा और इसप्रकार द्रव्यमें उस शब्दसे ध्वनित होनेवाले अर्थको छोड़कर अन्य अशेष अर्थोंका निराकरण हो जायगा । व्यवहार में जहाँ 'स्यात्' शब्दका प्रयोग न भी किया हो वहाँ उसे अवश्य समझ लेना चाहिये । 'स्यात्' शब्दका प्रयोग वक्ताकी इच्छा पर निर्भर है यदि वक्ता उस प्रकारके अभिप्रायवाला है तो उसका प्रयोग न करना भी इष्ट है।' इससे यह निष्पन्न हो जाता है कि यद्यपि वीरसेन स्वामीने यहाँ पर विकलादेशमें 'स्यात्' शब्दका प्रयोग नहीं किया है तो भी विकलादेशमें उसका प्रयोग उन्हें सर्वथा इष्ट नहीं है यह नहीं कहा जा सकता है। प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगीके विषय में एक और मौलिक मतभेद पाया जाता है। श्वे० आ० सिद्धसेन गणिने आदिके तीन वचनोंको सकलादेश और अन्तिम चार वचनोंको विकलादेश कहा है। उनका कहना है कि आदिके तीन वचन एक धर्मद्वारा अशेष वस्तुका कथन करते हैं इसलिये वे सकलादेश हैं और अन्तिम चार वचन धर्मों में भी भेद करके वस्तुका कथन करते हैं इसलिये वे विकलादेश हैं। इसप्रकार सकलादेश और विकलादेशके स्वरूप और उनके वचनप्रयोगका विचार कर लेनेके अनन्तर कालादिकी अपेक्षा उनमें जो भेदाभेदवृत्ति और भेदाभेदरूप उपचार किया जाता है उस पर थोड़ा प्रकाश डालते हैं । सकलादेश कालादिककी अपेक्षा अभेदवृत्ति और अभेदोपचार रूपसे प्रवृत्त होता है। उसका खुलासा इसप्रकार है-'कथंचित् जीव है ही' यहाँ अस्तित्व विषयक जो काल है वही काल अन्य अशेष धर्मोंका भी है इसलिये समस्त धर्मोंकी एक वस्तुमें कालकी अपेक्षा अभेदवृत्ति पाई जाती है। जैसे अस्तित्व वस्तुका आत्मस्वरूप है वैसे अन्य अनन्त गुण भी आत्मस्वरूप हैं, इसलिये आत्मरूपकी अपेक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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